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________________ २७२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ७. सरस आहार का त्याग - जिस प्रकार स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष को पक्षीगण पीड़ित करते हैं उसी प्रकार घी, दूध आदि रसवान् द्रव्यों के सेवन से कामवासना उद्दीपित होकर पीड़ित करती है | अतः ब्रह्मचारी के लिए सरस आहार का त्याग आवश्यक है । ' ८. अतिभोजन का त्याग - जिस प्रकार प्रचुर ईंधनवाले वन में उत्पन्न हुई दावाग्नि वायु के वेग के कारण शान्त नहीं होती है उसी प्रकार प्रमाण से अधिक भोजन करनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि ( कामाग्नि) शान्त नहीं होती है । अतः ब्रह्मचारी साधु को ब्रह्मचर्य की रक्षा एवं चित्त की स्थिरता के लिए थोड़ा आहार करना चाहिए । यदि अल्पाहार से भी ब्रह्मचर्य में बाधा आए तो ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए कभी-कभी आहार का त्याग भी करना चाहिए । अतः ग्रन्थ में साधु के आहारग्रहण न करने के कारणों में ब्रह्मचर्य की रक्षा को भी एक कारण माना गया है । 3 १. पणीयं भत्तपाणं च खिप्पं मयविवड्ढणं । बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए || रसा पगामं न निसेवियन्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवंति दुमे जहा साउफलं व पक्खी ॥ - उ० १६.७. तथा देखिए - उ० १६.७ (गद्य), १२. २. धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्थं पणिहाणवं । नातं तु भुजिज्जा बंभचेररओ सया || - उ० १६.८. तथा देखिए - उ० १६.८ (गद्य), १३. देखिए - आहार, प्रकरण ४. Jain Education International जहा दवग्गी परिघणे वणे समारुओ नोवसमं उवेइ । विदिग्गी विपगामभोइणो न बंभयारिस्स हियाय कस्सई || - उ० ३२.१०. For Personal & Private Use Only - उ० ३२.११. www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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