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________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ ५७ • 'लोकान्त' को ही 'लोकान' भी कहा गया है क्योंकि यह प्रदेश लोक का सर्वश्रेष्ठ भाग होने से शीर्ष स्थानापन्न भी है।' मध्यलोक (तिर्यक्लोक) : ग्रन्थ में मध्यलोक को 'तिर्यक्लोक' कहा गया है। क्योंकि इस लोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र परस्पर एक-दूसरे को घेरे हुए तिर्यकरूप (आजूबाज-तिरछे) से (स्वयम्भूरमण समुद्र तक) अवस्थित हैं तथा इसका आकार खड़े किए गए मृदंग के अर्धभाग सदृश है।3 इतने विशाल क्षेत्र में से केवल ढाई-द्वीपों में ही मानव का निवास माना गया है। ढाई-द्वीप को 'समयक्षेत्रिक'५ कहा गया अज्जुणसुवण्णगमई सा पुढवी निम्मला सहावेणं । . उत्तापगच्छत्तगसंठिया य भणिया जिणवरेहि ॥ संखंककुंदसंकासा पंडुरा निम्मला सुहा । सीयाए जोयणे तत्तो लोयंतो उ वियाहिओ ॥ जोयणस्स उ जो तत्य कोसो उवरम्मि भवे । तस्स कोसस्स छब्भाए सिद्धणोगाहणा भवे ॥ -उ. ३६. ५७-६२. तथा देखिए-डा० ज०, पृ० २४६ः १. अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्ठिया । -उ. ३६. ५६. २. देखिए-पृ० ५५, पा० टि० २. ३. तत्त्वसमुच्चय, पृ० ६७. तथा वृत्त-चित्र १-२. ४, प्राङ मानुषोत्तरान्मनुष्याः । -त० सू० ३.३५. ५. समय-क्षेत्र वह क्षेत्र है जहाँ समय, आवलिका, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि का कालविभाग परिज्ञात होता है। समय-क्षेत्र का दूसरा नाम मनुष्य-क्षेत्र भी है क्योंकि जन्मतः मनुष्य केवल समय-क्षेत्र (ढाई द्वीप) में ही पाए जाते हैं। समय-क्षेत्र के बाहर काल-विभाग नहीं होता है क्योंकि मनुष्य-क्षेत्र में विद्यमान सूर्य-चन्द्रमा ही अपनी गति द्वारा समय, मास आदि का विभाजन करते हैं। मनुष्य-क्षेत्र के बाहर यद्यपि असंख्यात सूर्य और चन्द्रमा हैं परन्तु वे. गतिशील Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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