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२२४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन साथी का सहवास ।' इसके अतिरिक्त विद्याग्रहण में पांच प्रतिबन्धक कारण भी गिनाए गए हैं जिन कारणों के मौजद रहने पर विद्या प्राप्त नहीं की जा सकती है। उनके नाम इस प्रकार हैं : अहंकार, क्रोध, असावधानता (प्रमाद), रोग और आलस्य ।
इस तरह जो उपर्युक्त गुणों से युक्त है वही शिक्षा (ज्ञान) प्राप्त कर सकता है। जो इन गुणों से रहित (अविनीत) है वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता है। इसीलिए ग्रन्थ में अविनीत और अबहुश्रुत को ज्ञानहीन, अहंकारी, लोभी, इन्द्रियवशवर्ती, असम्बद्धप्रलापी व बहुप्रलापी कहा है।
इस सम्पूर्ण वर्णन से स्पष्ट है कि जो विनीत है वही ज्ञान प्राप्त कर सकता है तथा जो अविनीत है वह ज्ञानप्राप्ति के सर्वथा अयोग्य है। अतः ग्रन्थ में विनीत शिष्य को प्राज्ञ, मेधावी, पण्डित, धीर, बुद्धपुत्र (महावीर का शिष्य), मोक्षाभिलाषी, प्रसादप्रेक्षी (मोक्ष की ओर दृष्टि रखनेवाला), साधु, विगतभयबुद्ध (भय से रहित बुद्धिमान्) आदि शब्दों से तथा अविनीत शिष्य को असाधु, अज्ञ, मन्द, मूढ़, बाल, पापदृष्टि, अबहुश्रुत आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है। . १. तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा विवज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झायएगंतनिसेवणा य सुत्तत्थ संचितणया धिई य ॥ आहारमिच्छे मियमेसणिज्ज सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धि । निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं समाहिकामे समणे तवस्सी ॥
-उ० ३२.३-४. २. अह पंचहि ठाणेहिं जेहिं सिक्खा न लब्भई । थंभा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएण य ।।
-उ० ११.३. ३. जे यावि होइ निविज्जे "अविणीए अवहुस्सुए।
-उ० ११.२. ४. उ० १.७,९,२०-२१,२७,२६,३७,३६,४१,४५. ५. उ० १.२८,३७-३६८.५११.२; १२.३१.
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