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प्रकर ३ : रत्नत्रय
[ २२३ देते हैं', 'ये मुझे गुलाम समझते हैं। ऐसा विचार करके स्वयं को पीड़ित करता हुआ गुरु को भी हतोत्साहित करता है।'
शिक्षाशील के कुछ अन्य गुण-इस तरह शिक्षा वही प्राप्त कर सकता है जो विनीत हो और जिसमें वे सभी गुण मौजूद हों जो एक विनीत शिष्य में होने चाहिए। ग्रन्थ में फिर शिक्षाशील के निम्न आठ विशेष-गुण बतलाए गए हैं :२ .
१. अहसनशील, २. जितेन्द्रिय, ३. अमर्मभाषी, ४. अनुशासनशील, ५. खंडित-आचार से रहित, ६. अतिलोलुपता से रहित, ७. क्रोध से रहित और ८. सत्यवक्ता। इन आठ गुणों के अतिरिक्त ग्रन्थ में अन्य पाँच गुण भी बतलाए हैं3 : १. गुरुकुलवासी, २. सदाचारी, ३. अध्ययन में उत्साही ( उपधानवान् ), ४. प्रिय करने वाला और ५. प्रिय बोलने वाला। इसी प्रकार समाधि के इच्छुक साधु के जो गुण ग्रन्थ में आवश्यक बतलाए गए हैं वे सब ज्ञानार्थी को भी आवश्यक हैं। जैसे : गुरु और वद्ध जनों की सेवा, बाल (मूर्ख) जीवों की संगति का त्याग, स्वाध्याय, एकान्तसेवन, सूत्रार्थ-चिन्तन, धैर्य, परिमित-भोजन और निपुण १. पुत्तो मे भाय नाइ त्ति साहू कल्लाण मन्नई। पावदिट्ठी उ अप्पाणं सासं दासि त्ति मन्नई ॥
-उ० १.३६. तथा देखिए-उ० १.२७-२६,३७-३८. २. अह अहिं ठाणेहि सिक्खासीले त्ति वुच्चई ।
अहस्सिरे सया दंते न य मममुदाहरे । नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले ति वुच्चई ।।
-उ० ११.४-५ ३. वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाणवं । पियंकरे पियंवाई से सिक्खं लद्ध मरिहई ।।
-उ०११.१४.
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