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२२२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन क्रोधी स्वभाव वाले गुरु को भी सरल और प्रसन्न बना देते हैं।' गुरु भी ऐसे विनीत शिष्य को पाकर उसे शिक्षा देने में उसी प्रकार आनन्द का अनुभव करता है जिस प्रकार उत्तम घोड़े को शिक्षा देने वाला सारथी। परन्तु इसके विपरीत अविनीत शिष्य को पाकर गुरु उसे शिक्षा देने में उसी प्रकार दु:खी होता है जिस प्रकार अभद्र (अड़ियल) घोड़े को शिक्षा देनेवाला सारथी । इसके अतिरिक्त अविनीत शिष्यों को पाकर गरु चिन्तित होते हए सोचते. हैं कि इन्हें पढ़ाया, पाला-पोसा और यहां तक कि इनके साथ सब कुछ किया फिर भी अब ये उसी प्रकार स्वेच्छाचारी हो गये हैं जिस प्रकार पंख निकल आने पर हंस पक्षी। अतः इन्हें छोड़ देने में ही कल्याण है। इस तरह अविनीत शिष्य गुरु को हमेशा चिन्तित ही किया करते हैं।
गुरु के द्वारा दिए गए उपालम्भ, भर्त्सना, दण्ड आदि को विनीत शिष्य ऐसा मानता है कि ये ( गुरु ) मुझे अपना छोटा भाई, पुत्र या स्वजन समझकर कल्याण के लिए ही कहते हैं परन्तु इसके विपरीत अविनीत शिष्य ये मेरे शत्र' हैं, 'ये मुझे गालियां १. अणासवा थूलवया कुसीला मिउंपि चण्डं पकरंति सीसा । चित्ताणुया लहुदक्खोववेया पसायए ते हु दुरासयंपि ।
-उ० १.१३. २. रमए पंडिए सासं हयं भद्द व वाहए। .. बालं सम्मइ सासंतो गलियस्सं व वाहए ।।
-उ० १.३७. ३. वाइया संगहिया चेव भत्तपाणेण पोसिया ।
जायपक्खा जहा हंसा पक्कमति दिसो दिसि ।। अह सारही विचिन्नेइ खलुंकेहि समागओ। कि मज्झ दुट्ठसीसेहिं अप्पा मे अवसीयई ।
-उ० २७.१४-१५. तथा देखिए-उ० २७.१६.
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