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________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [२२१ विनीत और अविनीत विद्यार्थी का गुरु पर प्रभाव-जहां अविनीत शिष्य अपनी कुप्रवृत्तियों के कारण विनम्र और सरल स्वभावी गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं वहाँ विनीत शिष्य गुरु की इच्छा के अनुकल कार्य को शीघ्र व चतुरतापूर्वक करके आचमन करना, ११. बाहर से आकर गुरु से पहले ही ध्यान करने बैठ जाना, १२. गुरु से बात करने के लिए किसी के आने पर पहले स्वयं ही उससे बातचीत करना, १३. रात्रि को गुरु के बुलाने पर भी न बोलना, १४. अन्न-पानी लाकर पहले छोटों के सामने आलोचना करना, १५. अन्न-पानी लाकर पहले छोटों को दिखलाना, १६. अन्न-पानी की निमन्त्रणा पहले छोटों को करना व बाद में गुरु को करना, १७. गुरु से पूछे बिना किसी को सरस भोजन देना, १८. गुरु के साथ भोजन करने पर स्वयं जल्दी जल्दी व अच्छा-अच्छा आहार करना, १६. गुरु के बुलाने पर न बोलना, २०. बुलाने पर आसन पर बैठे हुए ही उत्तर देना, २१. आसन पर बैठे हुए ही यह कहना कि क्या कहते हो, २२. गुरु को 'त' शब्द से पुकारना, २३. गुरु के द्वारा किसी काम के करने को कहने पर उनसे कहना कि तुम ही कर लो, २४. गुरु के उपदेश को प्रसन्नचित्त से न सुनना, २५. गुरु के उपदेश में भेद पैदा करना, २६. कथा में छेद उत्पन्न करना, २७. गुरु को बुद्धि से न्यून दिखलाने के लिए सभा में उनके द्वारा प्रतिपादित विषय का विस्तृत कथन करना, २८. गुरु के आसन (शय्या-संस्तारक) आदि से पैर का स्पर्श हो जाने पर भी बिना क्षमा-याचना के चले जाना, - २६. गुरु के आसन पर बिना आज्ञा के बैठना, ३०. बिना आज्ञा के गुरु के आसन पर शयन करना, ३१. गुरु से ऊँचे आसन पर बैठना, ३२. बड़ों की शय्या पर खड़े रहना व बैठना और ३३. गुरु के बराबर आसन करना। इन आशातनाओं के नाम व क्रम में कुछ अन्तर भी पाया जाता है परन्तु सबका तात्पर्य एकसा है-गुरु के प्रति आदरभाव न रखना। -देखिए, उ० आ० टी० ३१.२०; २६.४,१६; श्रमणसूत्र, पृ० १९७२०३,४२६-४३१; समवायाङ्गसूत्र, समवाय ३३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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