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________________ ४६२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन में दम घोटकर मारना, १८. स्वयं पाप करके दूसरे के मत्थे मढ़ना, १६. छलादिपूर्वक ठगना, २०. दूसरे को असत्यवक्ता कहना, २१. दूसरे को क्लेश देना, २२. मार्ग में लोगों के धन को लूटना, २३. परस्त्री को विश्वास देकर गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना, २४. बालब्रह्मचारी न होने पर भी बालब्रह्मचारी कहना, २५. ब्रह्मचारी न होने पर भी ब्रह्मचारी कहना, २६. आश्रयदाता का धन चुराना, २७. जिसके प्रभाव से ऊपर उठा हो उसके प्रभाव में विघ्न उपस्थित करना, २८. नायक व श्रेष्ठि आदि की हत्या करना, २६. देवदर्शन न करने पर भी कहना कि देवदर्शन करता हूँ और ३०. देवों की निन्दा करना। इस तरह इन संज्ञादि सभी दोषों की संख्या का विभाजन वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इनमें हीनाधिकता संभव है। पहले बतलाए गए साध्वाचार-सम्बन्धी दोषों से इन्हें सर्वथा पृथक् भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ये अहिंसादि व्रतों के ही घातक हैं। अध्ययनीय : अध्ययनीय गाथादि ग्रन्थाध्ययन इस प्रकार हैं : गाथा-षोडशक' – 'सूत्रकृताङ्ग' के प्रथम भाग ( श्रुतस्कन्ध ) के गाथा-अध्ययन पर्यन्त १६ अध्ययन यहाँ गाथा-षोडशक शब्द से कहे गए हैं। यह उत्तराध्ययन से भी प्राचीन ग्रन्थ है। याकोबी ने उत्तराध्ययन के साथ इसका भी अनुवाद किया है ।२ । ज्ञाताध्ययन -यहाँ ज्ञाताध्ययन से ज्ञातधर्मकथा के प्रथम भाग के १६ अध्ययन अभिप्रेत हैं । इनमें नीतिप्रद कथाओं के द्वारा धर्मोपदेश दिया गया है। १. 'गाथाभिधानमध्ययनं षोडशं येषां तानि गाथाषोडशकानि' सूत्रकृताङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानि तेषु।। -उ० ३१.१३ भावविजय-टीका। गाहाए सह सोलस अज्झयणा तेसु सुत्तगडपढमसुतक्खंध अज्झयणेसु इत्यर्थः। --उद्धृत, श्रमणसूत्र, पृ० १८०. २. देखिए-से• बु० ई०, भाग ४५. ३. उ० ३१.१४; समवा०, समवाय १६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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