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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३५६ २२. दर्शन परीषहजय-परलोक नहीं है, तप से ऋद्धि की प्राप्ति नहीं होती है, मैं भिक्षाधर्म लेकर ठगा गया हूँ, तीर्थङ्कर (जिन) न थे, न हैं और न होंगे' इस तरह धर्म में अविश्वास न होने देना दर्शन परीषहजय है।' अर्थात हर परिस्थिति में धर्म में दृढ़ विश्वास रखना । जब तक ऐसी दृढ़ श्रद्धा नहीं होगी तब तक साधु अन्य परीषहों को नहीं जीत सकता है क्योंकि श्रद्धा की नींव पर ही तो धर्म की इमारत खड़ी है। परीषहजय की कठोरता : ___ इस तरह ग्रन्थ में साधु के लिए उपयुक्त २२ प्रकार के परीषहों के सहन करने का विधान है। इन पर किस तरह विजय प्राप्त करना चाहिए इस विषय में लिखा है कि साधु पूर्वबद्ध कर्मों का फल जानकर धैर्यपूर्वक युद्धस्थल में स्थित हस्ती की तरह, वायु के प्रचण्ड वेग से कम्पित न होनेवाले मेरु पर्वत की तरह और भय को प्राप्त न होनेवाले सिंह की तरह अडिग एवं आत्मगुप्त होकर इन परीषहों को सहन करे। इस तरह इन परीषहों के आने पर अडिग रहना बड़ा कठिन है ।२
इस परीषहजय के वर्णन से साधु के कर्तव्यों का बोध होता है । अचेल और तणस्पर्श परीषहजय विशेषकर जिनकल्पी या दिगम्बर साधु की अपेक्षा से हैं क्योंकि वस्त्ररहित होने पर इन परीषहों की सम्भावना अधिक है। कुछ परीषह एक साथ आते हैं । साधु प्रतिदिन कुछ न कुछ परीषह अवश्य ही सहन करता है। जैसे : क्षधा, तृषा, तृणस्पर्श, याचना, जल्ल, शीत, उष्ण आदि । मालूम पड़ता है कि इनकी संख्या देश-काल की परिस्थिति के अनुसार ही निश्चित की गई है। जैसे: अरति, दर्शन, प्रज्ञा, अज्ञान आदि
१. नत्थि नणं परे लोए इड्ढी वावि तवस्सिणो । अदुवा वंचिओमि त्ति इइ भिक्खू न चिंतए ।
-उ०२.४४, तथा देखिए-उ० २.४५. २. उ० २१.१७,१६; १६.३२-३३,६२ आदि ।
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