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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
में इसी अग्निहोत्र की प्रधानता होने से अग्नि के संस्कार को यज्ञ कहा जाता है । वैदिक, दैविक और भौतिक अग्नि में वैदिक अग्नि 'यजु' कहलाती है । इस तरह वेदानुसार अर्थ संगत हो जाता है । परन्तु मुनि को यहाँ पर तपरूप अग्नि अभिप्रेत है जिस तपाग्नि से कर्मरूपी महावन ध्वस्त किया जा सके । यज्ञों का मुख - जिससे कमों का क्षय हो वह यज्ञों का मुख है । यह भावयज्ञ कर्मों का क्षय करनेवाला है और इसके अतिरिक्त अन्य हिंसाप्रधान वैदिक यज्ञ कर्मक्षय में कारण न होकर कर्म-बन्ध में कारण हैं । अतः जिन शास्त्रों में यमयज्ञों का विधान है उन्हें वेद कहते हैं और जो ऐसे यज्ञों को करता है वह याजक है । नक्षत्रों का मुख - चन्द्रमा नक्षत्रों का मुख ( प्रधान ) है | नक्षत्र, चन्द्र मण्डल आदि ज्योतिषशास्त्र का विषय है और ज्योतिषशास्त्र के अनुसार नक्षत्रों में चन्द्रमा की प्रधानता है। धर्मों का मुख - काश्यपगोत्रीय भगवान् ऋषभदेव धर्मों के मुख हैं । जैन धर्म के आदि प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव काश्यपगोत्री थे । ब्रह्माण्डपुराण और आरण्यक आदि में भी ऋषभदेव की स्तुति मिलती है । ' स्व-पर का कल्याणकर्ता - अहिंसारूप यमयज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला याजक ही स्व-पर का कल्याणकर्ता है |
इस तरह मुनि ने इस उत्तर द्वारा स्वयं को वेदादि का वेत्ता तथा ब्राह्मणों को वेदादि का अवेत्ता भी सिद्ध किया है ।
भावयज्ञ के उपकरण व विधि- इस भावयज्ञ में द्रव्य यज्ञ के स्थानापन्न कौन-कौन से उपकरण होते हैं तथा इस यज्ञ को सम्पन्न करने की विधि क्या है ? ब्राह्मणों के द्वारा इस प्रकार का प्रश्न पूछने पर हरिकेशिबल मुनि इस प्रकार उत्तर देते हैं :
१. देखिए -
- उ० आ० टी०, पृ० १११४-१११५. २. तपो जोई जीवो जोइठाणं जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोगसंती होमं हृणामि इसिणं पसत्थां ॥
मेहर मे संतितित्थे अणाविले अत्तपसन्नले से ||
- उ० १२.४४-४६. तथा देखिए- उ० १२.४२-४३,४७, ६.४०; मेरा निबन्ध - 'यज्ञ : एक अनुचिन्तन' श्रमण, सित० - अक्टूबर, १९६६.
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