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________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४०७ जिसे ग्रन्थ में ‘यमयज्ञ' के नाम से कहा गया है।' 'यम' मृत्यु का देवता माना जाता है। संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो इस मृत्यु रूपी यम देवता के द्वारा ग्रसित न होता हो। अतः जिस यज्ञ में मृत्यु को जीता जाए या मृत्यु का हवन किया जाए उसे 'यमयज्ञ' कहते हैं। जब ब्राह्मण लोग जैन मुनि हरिकेशिबल तथा जयघोष से कर्मविनाशक यज्ञ की प्रक्रिया पूछते हैं तो वे दोनों इसी यमयज्ञ की प्रक्रिया को बतलाते हैं तथा इसे सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या के स्पष्टीकरण के लिए यज्ञीय अध्ययन से एक प्रसंग उद्धृत किया जा रहा है : __ जयघोष नामक एक जैन मुनि विहार करते हुए अपने भाई विजयघोष ब्राह्मण के यज्ञमण्डप में पहुँचते हैं और वहाँ ब्राह्मण याजकों से यज्ञान्न की याचना करते हैं। यह सुनकर जब ब्राह्मण लोग कहते हैं कि इस यज्ञान को सिर्फ वेदविद, यज्ञकर्ता, ज्योतिषाङ्गविद्, धर्मशास्त्रज्ञाता तथा स्व-परकल्याणकर्ता ब्राह्मण ही प्राप्त कर सकता है तो मुनि इसके जबाब में कहते हैं कि आप लोग वेदादि के मुख को ही नहीं जानते हैं। यह सुनकर जब ब्राह्मण पूछते हैं कि वेदादि के मुख को कौन जानता है और वेदादि के मुख क्या हैं ? तब मुनि वैदिक तथा जैनदृष्टि से समन्वित व गम्भीर अर्थ से युक्त द्वयर्थक भाषा में इस प्रकार उत्तर देते हैं : वेदों का मुख–अग्निहोत्र वेदों का मुख है अर्थात् जिस वेद में अग्निहोत्र का प्रधानता से वर्णन हो वही वेद वेदों का मुख है । वेदों १. ज़ायाइ जमजन्नम्मि जयघोसि ति नामओ। -उ०२५.१. . . सुसंवुडा पंचहिं संवरेहि ...."महाजयं जयइ जन्नसिट्ठ । -उ० १२.४२. २. वही। ग्रन्थ में तीन जगह इस यज्ञ का वर्णन मिलता है: १. इन्द्रनमि-संवाद (हवां अध्ययन) में, २. हरिकेशिबल मुनि और ब्राह्मणों के संवाद (१२वाँ , अध्ययन) में तथा ३. जयघोष मुनि और ब्राह्मणों के संवाद ( २५ वाँ अध्ययन ) में। ३. उ० २५.१-१८. For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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