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१४६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तृष्णा और लोभ ये दोनों वास्तव में रागात्मक मोह की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं। तृष्णा को भयंकर फल देने वाली लता कहा गया है।' इसके अतिरिक्त मोह और तृष्णा में बीजाङ्कुर का सम्बन्ध भी बतलाया गया है-'जिस प्रकार बलाका पक्षी की उत्पत्ति अंडे से और अंडे की उत्पत्ति बलाका से होती है उसी प्रकार मोह की उत्पत्ति तृष्णा से और तृष्णा की उत्पत्ति मोह से होती है।'२ इस तरह यद्यपि मोह और तृष्णा में बीजाकुर की तरह सम्बन्ध बतलाया गया है परन्तु इसके आगे ग्रन्थ में ही लिखा है-जिसे मोह नहीं उसने दुःख का अन्त कर दिया। जिसे तृष्णा नहीं उसने मोह का अन्त कर दिया। जिसे लोभ नहीं उसने तृष्णा को नष्ट कर दिया और जिसके पास कोई संपत्ति नहीं (अकिञ्चन) उसने लोभ का भी अन्त कर दिया। यहाँ मोह का कारण तृष्णा बतलाकर तृष्णा का भी कारण लोभ बतलाया गया है। इस लोभ के न रहने पर तृष्णादि की परम्परा टूट जाती है। इस लोभ का विनाश अकिञ्चनभाव ( त्याग, समता आदि गुणों ) से होता है। यहाँ अकिञ्चनभाव लोभ का कारण नहीं है अपितु लोभत्याग से अकिञ्चनभाव की प्राप्ति होती है। इस अकिञ्चन भाव की प्राप्ति ज्ञान से होती है और अज्ञान से लोभादि में प्रवृत्ति । इस तरह अज्ञान ही सब प्रकार के दु:खों का मूल कारण है। अज्ञान के दूर होते ही मोहादि की शृंखला टूट जाती है और तब जीव जन्ममरण के चक्र से छुटकारा पाकर जीवन्मुक्त हो जाता है। इस तरह दुःखों के कारणभूत संसार की जो कारणकार्यशृंखला बतलाई गई है वह निम्न प्रकार है :
अज्ञान-लोभ→तृष्णा→मोह → राग-द्वेष →कर्मबन्धन →जन्ममरणरूप संसार→दुःख । १. भवतण्हा लया वुत्ता भीमा भीमफलोदया।
-~-उ० २३.४८. २. जहा य अंडप्पभवा बलागा अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हा मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥
-उ० ३२.६. ३. देखिए-पृ० १४५, पा० टि० ४.
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