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________________ प्रकरण २ : संसार [ १४७ अज्ञान से लोभ, लोभ से तृष्णा, तृष्णा से मोह, मोह से रागद्वेष, रागद्वेष से शुभाशुभ कर्मबन्धन, शुभाशुभ कर्मबन्धन से जन्म-मरणरूप संसार, जन्म-मरणरूप संसार से दुःख । इस तरह इस कारणकार्यशृंखला के मूल में अज्ञान है जिससे जीव हिताहित का विवेक नहीं कर पाता है और रागादि के वशीभूत होकर संसार के विषयभोगों में लिप्त रहता है। इस अज्ञान के दूर हो जाने पर संसार के विषयों से आसक्ति हट जाती है और दु:खों का भी अन्त हो जाता है । यह ज्ञान पुस्तकीय-ज्ञान मात्र नहीं है अपितु इस कारणकार्यशृं. खलारूप सत्यज्ञान का आत्म-साक्षात्कार आवश्यक है। जब तक इस सत्य का वास्तविक ज्ञान नहीं होगा तब तक संसार के विषयों से रागबुद्धि हट नहीं सकती है। इसीलिए ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती संसार की असारतो को जानकर भी संसार के विषयों से विरक्त नहीं हो पाता है।' इस तरह अज्ञान ही वह मूल कारण है जिससे मोहादिरूप अन्य कारणों की उत्पत्ति होती है और तब अनन्त दु:खों से पूर्ण संसार में परिभ्रमण । कम-बन्ध ____ जन्म-मरणरूप संसार परिभ्रमण में कर्मबन्ध का विशेष महत्त्व है क्योंकि जब तक जीव के साथ कर्म का बन्धन रहता है तब तक वह संसार में परिभ्रमण करता है और जब वह कर्म के बन्धन से छटकारा प्राप्त कर लेता है तो चतुर्गतिरूप संसार-परिभ्रमण से भी मुक्त हो जाता है। अतः जीव के साथ होनेवाले कर्मबन्ध का विचार आवश्यक है। कर्मबन्ध शब्द का अर्थ : _ 'कर्मबन्ध' शब्द में दो शब्द हैं-कर्म और बन्धन । 'कर्म' शब्द से साधारणतया क्रिया, प्रवृत्ति या कार्य का बोध होता है तथा 'बन्धन' शब्द से दो विशिष्ट पदार्थों के सम्बन्ध-विशेष का बोध होता है। इस तरह कर्मबन्ध का सामान्य अर्थ हुआ जीव के द्वारा १. उ० १३.२७-३०. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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