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________________ ४८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन द्वितीय (विकी ६ ठी शताब्दी) की नियुक्ति है। इसमें प्राकृतभाषा में निबद्ध ५५६ गाथाएँ हैं । ये मूल उत्तराध्ययन की गाथाओं (करीब १७४६ गाथाएँ तथा ८७ गद्यांश) से बहुत कम हैं। इसके बहुत ही संक्षिप्त और सांकेतिक होने से कालान्तर में उत्तराध्ययन के साथ नियुक्ति पर भी टीकाएँ लिखी गई। उत्तराध्ययन के गुरु-परम्परागत अर्थ को समझने के लिए भद्रबाह की निर्यक्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए यह उत्तरवर्ती सभी टीका-ग्रन्थों की आधारभित्ति रही है। इसमें विषय को स्पष्ट करने के लिए कहीं-कहीं दृष्टान्त और कथानकों का भी प्रयोग किया गया है।' २. चूणि-उत्तराध्ययन और उसकी नियुक्ति पर जिनदासगणि महत्तर (ई० सन् ६ ठी शताब्दी) ने सर्वप्रथम चूर्णि की रचना की है। इसमें मूलग्रन्थ के साथ निर्यक्ति के भी अर्थ को स्पष्ट किया गया है। यह प्राकृत-संस्कृत भाषा से मिश्रित गद्य रचना है। इसमें कई शब्दों की विचित्र व्युत्पत्तियाँ भी मिलती हैं । भाषाशास्त्र की दृष्टि से इसका बहुत महत्त्व है। तत्कालीन समाज और संस्कृति का चित्रण भी इसमें मिलता है। इसमें अन्तिम अठारह अध्ययनों का व्याख्यान बहुत ही संक्षिप्त है। ३. शिष्यहिता-टीका या बृहद्वत्ति (पाइय-टोका)-इसके रचयिता वादिवेताल शान्तिसूरि (मृत्यु, सन् १०४०) हैं। यह उत्तराध्ययन और उसकी नियुक्ति पर संस्कृत-गद्य में लिखी गई १. कडए ते कुंडले व ते अंजियक्खि ! तिलयते य ते । पवयणस्स उड्डाहकारिए । दुठा सेहि ! कतो सि आगया । राईसरिसवमित्ताणि परछिद्दाणि पाससि ।। अप्पणो बिल्लमित्ताणि पासंतोऽवि न पाससि ।। -उ० नि० १३६-१४०. २. पूर्णत इति घोरा, परतः कामतीति पराक्रमः, पर वा कामति" दस्यते एभिरिति दन्ताः । -उ० चूणि, पृ० २०८. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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