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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र
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"दिगम्बर- परम्परा में इसका सविशेष उल्लेख होने से तथा इसके विपुल टीका - साहित्य से इसके महत्त्व और प्राचीनता के साथ इसकी लोकप्रियता का भी पता चलता है । यदि हम संक्षेप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि उत्तराध्ययन अंगबाह्य-ग्रन्थ होने पर भी अंगग्रन्थों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है ।
इसके अतिरिक्त इसके उपदेशात्मक, धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रन्थ होने पर भी इसमें धार्मिक काव्य के सामान्य गुणों का अभाव नहीं हुआ है । जैसा कि कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, तदनुसार उत्तराध्ययन में तत्कालीन समाज एवं संस्कृति आदि का भी पर्याप्त समावेश हुआ है । विविध प्रकार के संवादों, प्रतीकों, उपमाओं, सुभाषितों आदि के प्रयोग सें इसमें रोचकता आ गई है । इसीलिए उत्तराध्ययन को जैन समाज में हिन्दुओं की भगवद्गीता तथा बौद्धों के धम्मपद की तरह महत्त्वपूर्ण कृति माना जाता है ।
टीका - साहित्य :
पालि-त्रिपिटक पर लिखी गई अट्ठकथाओं की भाँति जैन आगम - साहित्य पर भी कालान्तर में विपुल व्याख्या - साहित्य लिखा गया । उत्तराध्ययन के महत्त्व और लोकप्रियता के कारण इस पर अपेक्षाकृत अधिक व्याख्यात्मक साहित्य मिलता है । सरसकथानक, सरस-संवाद और सरस रचना - शैली के कारण अंग और अंगबाह्य-ग्रन्थों में इसकी लोकप्रियता सर्वाधिक रही है । इसके परिणामस्वरूप कालान्तर में उत्तराध्ययन पर सर्वाधिक टीकाग्रन्थ लिखे गए । कुछ प्रमुख टीका ग्रन्थ निम्नोक्त हैं :
१. निर्मुक्ति - व्याख्यात्मक साहित्य में नियुक्ति का स्थान 'सर्वोपरि है। नियुक्ति का अर्थ है- सूत्र में निबद्ध अर्थ का सयुक्तिक प्रतिपादन । ' उत्तराध्ययन पर सबसे प्राचीन टीका भद्रबाहु
१. निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्तिः ? - परिवाट्या योजनं । - दशवेकालिकवृत्ति, पृ० ४ ( उद्धृत - प्रा० सा० इ०, पृ० १६४,
फुटनोट ) ।
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