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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र टीका है। यह भी कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।' संस्कृत टीकाओं में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। बीच-बीच में प्राकृत कथाएँ भी उद्धृत की गई हैं।
४. सुखबोधा-टीका या वृत्ति - शान्तिसूरि की शिष्यहिताटीका के आधार पर बृहद्गच्छीय श्री नेमिचन्द्राचार्य (वि०सं० ११२६) ने मूल-ग्रन्थ पर संस्कृत-गद्य में सुखबोधा-टीका की रचना की है। इसमें नियुक्ति की गाथाओं को भी यथास्थान उदधत किया गया है। दीक्षा के पूर्व आप देवेन्द्रगणि कहलाते थे। संस्कृत में मूल सूत्र-ग्रन्थ का अध्ययन करने के लिए यह बहुत उपयोगी टीका है।
इनके अतिरिक्त कालान्तर में अन्य अनेक विद्वानों ने उत्तराध्ययन पर कई व्याख्यात्मक टीकाएँ लिखी हैं। जैसे-तपागच्छाचार्य देवसुन्दरसूरि के शिष्य ज्ञानसागरसूरि (वि०सं०१४४१) की अवचूरि, महिमरत्न के शिष्य विनयहंस (वि०सं० १५६७-८१) की वत्ति, सिद्धान्तसरि के शिष्य कीर्तिवल्लभगणि (वि०सं० १५५२) की टीका, खरतरगच्छीय जिनभद्रसूरि के शिष्य कमलसंयम उपाध्याय (वि०सं० १५५४) की वृत्ति, तपोरत्नवाचक (वि०सं० १५५०) की लघुवृत्ति, मेरुतुंगसूरि के शिष्य माणिक्यशेखरसूरि की दीपिका-टीका, महेश्वरसूरि के शिष्य अजितदेवसूरि (वि० सं० १६२६) की टीका, गुणशेखर की चूर्णि, लक्ष्मीवल्लभः ( वि० १८ वीं शताब्दी ) की दीपिका, भावविजयगणि (वि० सं० १६८६) की वृत्ति, हर्षनन्दनगणि (वि० सं० १७११) की टीका, धर्ममन्दिर उपाध्याय (वि० सं० १७५०) की मकरन्दटीका, उदयसागर (वि० सं० १५४६) की दीपिका-टीका, हर्षकूल (वि० सं० १६०० ) की दीपिका, अमरदेवसरि की टीका, शान्तिभद्राचार्य की वृत्ति, मुनिचन्द्रसूरि की टीका, ज्ञानशीलगणि १. उ० शा०, भूमिका, पृ० ५२-५३.
२. शान्टियर ने भी इस टीका को शिष्यहिता-टीका से अधिक उपयोगी .. माना है और इसीका उपयोग किया है ।
-देखिए-उ० शा०, प्रोफेस, पृ० ६ तथा भूमिका, पृ० ५८.
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