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प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[७६ यद्यपि धर्मद्रव्य की तरह आकाश के भी स्कन्ध, देश और प्रदेश ये तीन भेद किए गए हैं परन्तु प्रकृत-ग्रन्थ में अन्य प्रकार से भी दो भेद मिलते हैं। उनके नाम हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश ।' लोकाकाश से तात्पर्य है-आकाश के जितने भाग में धर्मादि द्रव्यों की सत्ता है, वह प्रदेश । अलोकाकाश से तात्पर्य हैजहाँ धर्मादि द्रव्यों की सत्ता नहीं है (अलोक)-मात्र आकाश ही आकाश है, वह प्रदेश । इस तरह आकाश का यह द्विविध विभाजन लोक की सीमा के आधार पर किया गया है। आकाश के उपर्युक्त सभी भेद काल्पनिक या उपाधिजन्य हैं क्योंकि इस प्रकार से आकाश के घटाकाश, मठाकाश आदि अनेक भेद हो सकते हैं। वास्तव में आकाश भी धर्मादि-द्रव्य की तरह एक अखण्ड अस्तिकाय-द्रब्य है जिसे पुदगल की तरह तोड़कर दो भागों में विभक्त नहीं किया जा सकता है।
अलोक में धर्मादि द्रव्यों का अभाव होने से अलोकाकाश में आश्रय प्रदानरूप आकाश के सामान्य लक्षण का अभाव है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि आकाश अलोक में भी आश्रय देने को तैयार है। यदि कोई द्रव्य किसी कारणवश वहाँ आश्रय प्राप्त करने के लिए नहीं जाता है तो इसमें आकाश का क्या दोष है ? वास्तव में धर्म और अधर्म द्रव्य के प्रतिबन्धक होने से ही अलोकाकाश में अन्य द्रव्यों की सत्ता नहीं है। सीमारहित होने के कारण आकाश को अनंत माना गया है। आधुनिक दर्शनशास्त्र में धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों द्रव्यों की शक्तियाँ आकाश में ही मानी जाती हैं।
१. देखिए-पृ० ५५, पा० टि० १; पृ० ७५, पा० टि० ३. २. देखिए-पृ०७४, पा० टि० १; पृ० ५५ पा० टि. १. ३. इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।
-उ० ६.४८. तथा देखिए-पृ० ५५, पा० टि० १. 4. These three functions of subsistence, motion and rest are assigned to space in modern philosophy.
-भा० द० रा०, पृ० ३१६.
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