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________________ ३०२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ४. प्रतिक्रमण आवश्यक - प्रति' उपसर्गपूर्वक गमनार्थक 'क्रम' धातु से प्रतिक्रमण शब्द बना है । इसका अर्थ है - प्रतिकूल पादनिक्षेप अर्थात् सदोष आचरण में जितने आगे बढ़ गए थे उतने ही पीछे हटकर स्वस्थान पर जाना । अतः प्रतिक्रमण का अर्थ हुआ - दोषों का प्रायश्चित्त ( पश्चात्ताप) करना । यह प्रतिक्रमण प्रात:काल तथा सायंकाल तो किया ही जाता है, इसके अतिरिक्त दैनिक छोटी से छोटी क्रिया करने पर तथा विशेष अवसरों पर भी किया जाता है । इसके फल का वर्णन करते हुए ग्रन्थ में लिखा है'प्रतिक्रमण से जीव व्रतों के छिद्रों (दोषों) को दूर करता है, फिर शुद्धव्रतधारी होकर कर्मास्रवों को रोकता हुआ तथा आठ प्रवचनमाताओं में सावधान होता हुआ विशुद्ध चारित्र को प्राप्त करके संयम में विचरण करता है ।' यह प्रतिक्रमण आवश्यक प्रायश्चित्त तप का एक भेदविशेष है जिसका आगे तप के प्रकरण में वर्णन किया जाएगा। प्रतिक्रमण एक छोटा प्रायश्चित्त है और यह 'मेरा पाप मिथ्या हो' (मिच्छामि दुक्कडं ) इतना कहने मात्र से पूरा हो जाता है । अर्थात् स्वयं के दोष को स्वयं से कहकर आत्मनिन्दा करना । इस आत्मनिन्दारूप पश्चात्ताप से जीव क्षपकश्रेणी ( करणगुणश्रेणी ) ४ को प्राप्त करता हुआ मोहनीय कर्म का क्षय कर देता है । " प्रतिक्रमण का जैनशास्त्रों में बहुत महत्त्व है । इसीलिये समस्त आवश्यक क्रिया को 'प्रतिक्रमण' शब्द से भी कहा जाता है । १. प्रतीयं क्रमणं प्रतिक्रमणं, अयमर्थ: शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात्प्रतीयं क्रमणम् । - हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र- स्वोपज्ञवृत्ति, तृतीय प्रकाश । २. देखिए - सामाचारी; आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा १२४४. ३. पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि विहे । पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्टसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ । - उ० २६.११. ४. देखिए - पृ० २३३, पा० टि० १. ५. उ० २६.६. ६. देखिए - श्रमणसूत्र, पृ० २०९ - २१०. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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