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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
था। जैसे : १. ब्रह्मचर्याश्रम, २. गृहस्थाश्रम, ३. वानप्रस्थाश्रम तथ ४. संन्यासाश्रम |
१. ब्रह्मचर्याश्रम - यह जीवन की प्रारम्भिक अवस्था थी और यह अवस्था गार्हस्थजीवन में प्रवेश करने के पूर्व तक रहती थी । इसमें व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए मुख्यरूप से विद्या
ध्ययन करता था ।
२. गृहस्थाश्रम - जब व्यक्ति विद्याध्ययन कर चुकता था तो वह ब्रह्मचर्याश्रम को छोड़कर गार्हस्थजीवन में प्रवेश करता था । ग्रन्थ में गृहस्थाश्रमी को 'घोराश्रमी' कहा गया है क्योंकि इस आश्रम में रहने वाले व्यक्ति को चारों आश्रम वाले व्यक्तियों का भरण-पोषण आदि करना पड़ता था । इस तरह इस आश्रमस्थ व्यक्ति के ऊपर चारों आश्रमवाले व्यक्तियों का भार होने से यह बहुत कठिन था । इसका ठीक से पालन करना क्षत्रियों का ही काम था । इसीलिए: जब नमि राजर्षि गृहस्थाश्रम को छोड़कर संन्यासाश्रम में प्रवेश लेने के लिए तत्पर होते हैं तो ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र गृहस्थाश्रम की कठोरता आदि का कथन करता हुआ इस गृहस्थाश्रम को न छोड़ने के लिए कहता है ।
३. वानप्रस्थाश्रम–गृहस्थाश्रम के बांद व्यक्ति वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करता था । इसमें वह मुख्यरूप से संन्यासाश्रम में प्रवेश का
अभ्यास करता था ।
४. संन्यासाश्रम - इसमें व्यक्ति गार्हस्थजीवन से पूर्ण मुक्त होकर साधु बन जाता था और तपादि की साधना करता था ।
इस तरह उस समय की सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था वर्णाश्रम व्यवस्था पर निर्भर थी तथा प्रत्येक वर्ण और आश्रम वाले व्यक्तियों के कार्य भिन्न भिन्न थे ।
पारिवारिक जीवन
उस समय समाज वर्णाश्रम के अतिरिक्त अनेक परिवारों ( कुटुम्बों) में विभक्त था । ये परिवार छोटे-बड़े सभी प्रकार के
१. देखिए - १०२३५, पा० टि० ३.
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