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परिशिष्ट ३ साहनाचार के कुछ अन्य ज्ञातव्य तथ्य
उत्तराध्ययन के चरणविधि नामक इकतीसवें अध्ययन में साधु को कुछ विषयों में विवेकवान् होने का उल्लेख किया गया है तथा उसका फल मुक्ति बतलाया गया है। मूल ग्रन्थ में उन विषयों की सिर्फ संख्या गिनाई गई है। टीका-ग्रन्थों में उनका विस्तार किया गया है। साध्वाचार के प्रसङ्ग में जिन विषयों का उल्लेख किया जा चुका है उन्हें छोड़कर शेष को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है : १. त्याज्य संज्ञादि दोष तथा २. अध्ययनीय गाथादि ग्रन्थाध्ययन । त्याज्य:
त्याज्य संज्ञादि दोष इस प्रकार हैं :
संज्ञाएँ' (Expressions of the emotions)-संवेदनात्मक चित्तवत्ति या भावना-विशेष का नाम संज्ञा है। इसके आहार, भय, मैथन तथा परिग्रह के भेद से चार भेद किए गए हैं। सांसारिक सभी विषयों की अभिलाषारूप चित्तवृत्ति से विरक्त होने के कारण साधु को इन सब से भी विरक्त होना आवश्यक है।
क्रियाएं २ (Actions )-व्यापार-विशेष का नाम किया है। इसके पाँच प्रकार गिनाए गए हैं : १. कायचेष्टारूप सामान्य क्रिया ( कायिकी ), २. खड़गादि साधन के साथ की गई क्रिया ( आधिकरणिकी ), ३. द्वेषभावजन्य क्रिया ( प्राद्वेषिकी ), ४. कष्ट देनेवाली क्रिया ( पारितापनिकी ) और ५. प्राणविनाशक क्रिया ( प्राणातिपातिकी.) । साधु को अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए इन सब क्रियाओं का त्याग करना आवश्यक है। १. उ० ३१.६; समवा०, समवाय ४. २. उ० ३१.७; समवा०, समवाय ५.
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