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प्रकरण ३: रत्नत्रय
[ २०५ वहाँ पर सामान्य सम्यग्दर्शन के ये भेद नहीं गिनाए हैं अपितु सम्यग्दर्शन के धारक सम्यग्दृष्टि के प्रथमतः 'सराग' और 'वीतराग' के भेद से दो भेद करके सराग-सम्यग्दृष्टि के ये भेद गिनाए गए हैं।' इसके अतिरिक्ति इन १० भेदों का व्याख्यान करते समय स्थानाङ्ग-सूत्र के वत्तिकार श्री अभयदेवसूरि तथा प्रज्ञापना-सूत्र के रचयिता श्री आर्यश्याम उत्तराध्ययन की गाथाओं को ज्यों की त्यों उद्धृत करते हैं ।
गुणभद्ररचित आत्मानुशासन में भी सम्यक्त्व के इन १० भेदों का उल्लेख मिलता है परन्तु वहाँ पर उनके साथ रुचि शब्द नहीं जोड़ा गया है तथा उनके नाम एवं क्रम में भी कुछ अन्तर है। आत्मानुशासन के हिन्दी टीकाकार पं० वंशीधर ने इन भेदों का आधार न केवल उत्पत्ति की निमित्तकारणता को स्वीकार किया है अपितु स्वरूप की हीनाधिकता को भी कारण बतलाया है। परन्तु याकोबी ने ग्रन्थोक्त सभी भेदों को उत्पत्तिमूलक ही माना है।५।।
निमित्तकारण की विविधता के कारण यद्यपि सम्यग्दर्शन के अनेक भेद हो सकते हैं तथापि उत्पत्ति के प्रति निमित्तकारण की अपेक्षा और अनपेक्षा की दृष्टि से संक्षेप में इन्हें दो भागों में बाँटा १. दसविध सरागसम्मइंसणे पन्नत्ते, तं जहानिसग्गुवतेसरुई आणरुती सुत्त बीजरुतिमेव । अभिगम वित्थाररुती किरिया सखेव धम्मरुती ॥
-स्थानाङ्गसूत्र १०.७५१ (पृ० ४७६). से किं तं सरागदंसणारिया ? सरागदंसणारिया दसविहा पन्नत्ता । तं जहा-निसग्गुव० ।
-प्रज्ञापना, पद १, सूत्र ७४, पृ. १७८. २. वही। ३. आज्ञामार्ग समुद्भवमुपदेशात् सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्ताराभ्यां भवमवपरमावादिगाढे च ॥
-आत्मानुशासन, श्लोक ११. तथा देखिए-वही, श्लोक १२-१४. ४. आत्मानुशासन, पृ० १८. ५. से बु० ई०, पृ० १५४.
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