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________________ २०६ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन जा सकता है, जैसा कि सम्यक्त्व के लक्षण से भी स्पष्ट है १. स्वत: उत्पन्न होने वाला और २. पर के निमित्त से उत्पन्न होने वाला । तत्त्वार्थ सूत्र में भी ऐसा ही कहा है । यदि उपर्युक्त १० भेदों को इन दो भागों में विभक्त किया जाए तो निसर्गरुचि को छोड़कर शेष सभी पर - सापेक्ष हैं । इसके अतिरिक्त आवरक कर्मों के क्षय, उपशम एवं क्षयोपशम (मिश्र) के भेद से सम्यग्दर्शन के अन्य तीन भेद भी सम्भव हैं । 3 महत्त्व - यह सम्यग्दर्शन धर्म का मूलाधार है । इसके अभाव में ज्ञान और चारित्र आधारहीन हैं । यद्यपि यह सत्य है कि ज्ञान और चारित्र में वृद्धि होने पर सम्यग्दर्शन में वृद्धि होती है परन्तु ज्ञान और चारित्र में सम्यक्पना तभी संभव है जब सम्यग्दर्शन हो । अतः सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को ग्रन्थ में 'बोधिलाभ' शब्द से भी कहा गया है । इस सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर जीव मुक्ति के पथ पर अग्रसर हो जाता है और धीरे-धीरे ज्ञान और चारित्र की पूर्णता को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । " सम्यग्दर्शन का इतना महत्त्व होने के ही कारण ग्रन्थ के २६ वें अध्ययन का नाम 'सम्यक्त्व - पराक्रम' रखा गया है जबकि उसमें सम्यक्त्व १. देखिए - पृ० १७, पा० टि०२. २. तन्निसर्गादधिगमाद्वा । - त० सू० १ ३. ३. कर्मणां क्षयतः शान्तेः क्षयोपशमतस्तथा । श्रद्धानं त्रिविधं बोध्यं I - यशस्तिलक चम्पू, पृ० ३२३. ४. सम्मद्दंसणरत्ता''''''तेसि सुलहा भवे बोही । - उ० ३६.२५६. तथा देखिए - उ० ३६. २५८-२६२. सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥ Jain Education International -ugyfa 4.08. ५. वही; तथा पृ० १६८, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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