________________
२५८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन
यद्यपि साधु सब प्रकार के परिग्रह से रहित होता है तथापि जीविका-निर्वाह, धर्मपालन तथा लोक में प्रतीति कराने के लिए वह जिन आवश्यक बाह्य उपकरणों को ग्रहण करता है उन्हें उपधि या उपकरण कहते हैं। इन्हें मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया गया है :१. १. सामान्य-उपकरण ( ओघोपधि ) और २. विशेष-उपकरण ( औपग्रहिकोपधि )। सामान्य उपकरण :
जो वस्त्रादि साधु के उपयोग में हमेशा आते रहते हैं वे सामान्यउपकरण ( ओघोपधि ) कहलाते हैं। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में स्थविरकल्पी साध के लिए वतमान में ऐसे १४ उपकरणों के रखने की छट है।२ परन्तु ग्रन्थ में इस प्रकार के जिन उपकरणों का उल्लेख मिलता है, वे इस प्रकार हैं :
१. मुखवस्त्रिका-श्वेत कपड़े की पट्टी जिसे जैन श्वेताम्बर (स्थानकवासी और तेरापन्थी) साधु हमेशा मुख पर बांधे रहते हैं । दिगम्बर-परम्परा के साधु इस उपकरण को नहीं धारण करते हैं । १. ओहोवहोवग्गहियं भण्डगं दुविहं मुणी ।
-उ० २४.१३. २. वे चौदह उपकरण इस प्रकार हैं : १. पात्र, २. पात्रबन्ध, ३. पात्र
स्थापन, ४. पात्रप्रमार्जनिका, ५. पटल, ६. रजस्त्राण, ७. गुच्छक, ८-६. दो चादरें, १०. ऊनीवस्त्र (कम्बल), ११. रजोहरण, १२. मुखवस्त्रिका, १३. मात्रक (पात्र-विशेष) और १४ चोलपट्टक, (लंगोटी)।
-जै० सा० इ० पू०, पृ० ४२४. ३. पुविल्लम्मि चउभाए पडिले हित्ताण भण्डयं ।
.........
मुहपोत्ति पडिलेहित्ता पडिले हिज्ज गोच्छगं । गोच्छगल इयंगुलिओ वत्थाइं पडिलेहए ॥
- उ० २६.२१-२३.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org