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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ ३११ अतिरिक्त शयया शब्द का भी प्रयोग मिलता है।' शयया शब्द का अर्थ है-जहाँ पर विस्तर बिछाया जा सके ऐसा स्थान । आचाराङ्ग सूत्र में भी इसी अर्थ में 'शय्यैषणा' नामक अध्ययन मिलता है। निवासयोग्य भूमि कैसी हो? __ प्रकृत ग्रन्थ में साधु के निवासयोग्य भूमि (उपाश्रय) के विषय में जो संकेत मिलते हैं वे इस प्रकार हैं :
१. जो रमणीय एवं सुसज्जित न हो- मन को लुभानेवाला, चित्रों से सुशोभित, पुष्पमालाओं एवं अगरचन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित, सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित एवं सुन्दर दरवाजों से युक्त उपाश्रय साधु के निवास के योग्य नहीं है क्योंकि ऐसे उपाश्रय में रहने से भोगों में आसक्ति बढ़ती है और फिर इन्द्रियों को वश में रखना कठिन हो जाता है । __२. जो स्त्री, पशु आदि से संकीर्ण न हो-स्त्री, पशु आदि के आवागमन से संकीर्ण स्थान में निवास करने पर उनकी कामचेष्टाएँ आदि देखने व सुनने से ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने में बाधा आती है। अतः साधु को स्त्री, पशु आदि के आवागमन से रहित स्थान में ही ठहरना चाहिए।
१. वही। २. आचाराङ्ग, २.१.२. ३. मणोहरं चित्तघरं मल्लधूवेण वासियं ।
सकवाडं पंडुरुल्लोयं मणसावि न पत्थए ।। इंदियाणि उ भिक्खुस्स तारिसम्मि उ वस्सए । दुक्कराई निवारेउं कामराग विवड्ढणे ।।
-उ० ३५.४-५. ४. फासुयम्मि अणाबाहे इत्थीहि अणभिद दुए। तत्थ संकप्पए वासं भिक्खू परमसंजए ।
-उ०३५.७. तथा देखिए-उ० ३०.२८.
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