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________________ ३१० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन से साक्षात् निद्रा का कथन न करके निद्रात्याग का कथन किया गया है । शरीर की स्वस्थता तथा स्वाध्याय आदि करने के लिये भी निद्रा आवश्यक है । रात्रि का चतुर्थ प्रहर - इसमें रात्रिसम्बन्धी प्रतिलेखना करके मुख्यरूप से पुनः स्वाध्याय करे । स्वाध्याय करते समय गृहस्थों को न जगाए । जब इस प्रहर का चतुर्थांश शेष रह जाए तो गुरु की वन्दना करके प्रातःकालसम्बन्धी प्रतिलेखना करे, फिर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में लगे हुए रात्रिसम्बन्धी दोषों का चिन्तन करता हुआ गुरु-वन्दना, कायोत्सर्ग, जिनेन्द्रस्तुति, प्रतिक्रमण आदि आवश्यकों को करे । इसके बाद पुनः अगले दिन की क्रियाओं में पूर्ववत् प्रवृत्ति करे । इस तरह यहाँ साधु की दिन एवं रात्रिचर्या के साथ दस अवयवोंवाली सामाचारी का जो वर्णन किया गया है वह सामान्य अपेक्षा से है क्योकि इसमें समयानुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है । ' वसति या उपाश्रय साधु के ठहरने के स्थान को वसति या उपाश्रय कहा जाता है। ये उपाश्रय प्रायः नगर के बाहर उद्यान आदि के रूप में होते थे । साधु को किसी एक निश्चित उपाश्रय में हमेशा ठहरे रहने का आदेश नहीं है अपितु उनके लिए हमेशा ( वर्षाकाल को छोड़कर) एक ग्राम से दूसरे ग्राम में इन्द्रियनिग्रहपूर्वक विचरण करने का उल्लेख मिलता है । साधु के ठहरने के स्थान के अर्थ में उपाश्रय के १ : विशेष के लिए देखिए - दशाश्रुतस्कन्ध ( आचारदशा), पर्युषणा कल्प; कल्पसूत्र, सामाचारी प्रकरण । २. इंदियग्गा मनिग्गाही मग्गगामी महामुनी । गामा गामं यंते पत्तो वाणासि पुरि ॥ Narrate बहिया उज्जाणम्मि मणोरमे । फासुए सेज्जसंथारे तत्थ वासनुवागए || तथा देखिए - उ० २३.३-४,७-८. Jain Education International - उ० २५.२-३. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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