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________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३०५ च. शरीर प्रत्याख्यान-इसका अर्थ है-शरीर से ममत्व हटाना। संसारी अवस्था में जीव हर समय किसी न किसी प्रकार के शरीर से युक्त रहता है और जब वह शरीर का प्रत्याख्यान कर देता है तो अशरीरी सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है।' ___ छ. सहाय प्रत्याख्यान-अपने कार्य में किसी की सहायता न लेना सहाय प्रत्याख्यान है। इससे जीव एकत्वभाव को प्राप्त करता है। एकत्वभाव प्राप्त कर लेने पर वह अल्प शब्दवाला, अल्प कलहवाला और अल्प कषायवाला होता हुआ संयमबहुल, संवरबहुल और समाधिबहुल हो जाता है । २ । ज. कषाय प्रत्याख्यान- यद्यपि साधु सामान्यतया रागद्वेषरूप कषाय से रहित होता है फिर भी रागद्वेष का प्रसङ्ग आने पर संयम से च्युत न होना अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को जीतना कषाय प्रत्याख्यान है। इससे साधक तत्तत् कर्मों का बन्ध नहीं करता हुआ पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करके क्रमशः क्षमा, मृदुता, ऋजुता एवं निर्लोभता को प्राप्त कर लेता है । क्षमा से सब प्रकार के कष्टों को सहन करता है। मार्दव ( मृदुता ) से अभिमानरहित होकर मद के आठ स्थानों का क्षय कर देता है। आर्जव ( ऋजुता.) से सरल प्रकृति का होकर धर्म का पालन करता है। निर्लोभता से अकिञ्चनभाव ( अपरिग्रहपना ) को प्राप्त करके विषयों से अप्रार्थनीय ( लुभाया न जाने वाला ) हो जाता है। इस तरह इन कषायों पर विजय पाने से वीतरागता की प्राप्ति होती है। वीतराग पुरुष सुख और दुःख में समान स्थितिवाला होता है। उसे मनोज्ञामनोज्ञ विषयों के प्रति ममत्व या द्वेष नहीं रहता है।४ . १. सरीरपच्चक्खाणेणं सिद्धाइ सयगुणत्तणं निव्वत्तेइ । -उ० २६.३८. २. सहायपच्चक्खाणेणं एगीभाव जणयइ"संवरबहुले समाहिए यावि भवइ । -उ० २६.३६. ३. उ० २६.६७-७०. ४. कसायपच्चक्खाणेणं वीयरायभावं जणयइ"""समसुहदुक्खे भवइ। -उ० २६.३६. - तथा देखिए-उ० २६.४५-४६;६.५७-५८,३१.३,७. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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