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१३० ] उत्तराध्य यन-सूत्र : एक परिशीलन से पूर्ण होने के कारण दुर्गतिरूप ( खोटी अवस्थाएँ ) कही गई. हैं।' यद्यपि भौतिक सुख-सुविधाओं की अपेक्षा मनुष्य और देवगति को सुगति भी कहा गया है। परन्तु इन गतियों की भी सुखसुविधाएँ कुछ समय बाद या मृत्यु के उपरान्त नष्ट हो जाने के कारण दुर्गतिरूप ही हैं। अतः केवल स्व-स्वरूप की प्राप्तिरूप सिद्ध-अवस्था (मुक्ति) ही सदा सुखों से पूर्ण होने के कारण सुगतिरूप कही गई है। इस तरह एकमात्र सिद्ध-अवस्था के सुगतिरूप होने से सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति में प्रमुख कारण त मनुष्यगति को भी कथञ्चित् सुगतिरूप कहा जा सकता है क्योंकि मनुष्यगति वाला जीव ही अपने संयम आदि के द्वारा सिद्ध-अवस्था को प्राप्त कर सकता है। अतः ग्रन्थ में मनुष्यगति को अपार वैभवसम्पन्न देवगति की भी अपेक्षा दुर्लभ बतलाया गया है। १. सहा विविहा भवन्ति लोए, दिव्वा माणुस्सगा तहा तिरिच्छा। भीमा भय-भेरवा उराला""""॥
-उ० १५.१४. विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइयतिरिक्ख जोणियमणस्सदेवदुग्गईओ निरुभइ ।
-उ० २६.४. तथा देखिए-उ० १४.२; १६.१६,४६-४७; २०.३१. २. मणुस्सदेव सुगईओ निबंधई।
-उ० २६.४. तथा देखिए-उ० ३.१,७; प्रकरण १. ३. नाणं च दंसणं चेव"जीवा गच्छन्ति सोग्गई।
-उ० २८.३. ४. एकया देवलोएसु नरएसु वि एगया।
एगया आसुरं कायं आहाकम्मेहिं गच्छई ।
कम्मसंगेहिं सम्मूढा दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणसासु जोणीसु विणि हम्मन्ति पाणिणो ॥ कम्माणं तु पहाणाए आणुपुव्वी कयाइ उ । जीव सोहिमणुप्पत्ता आययन्ति मणुस्सयं ।।
-उ० ३.३-७..
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