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२५६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन भेद को लेकर एक संवाद होता है। इसमें पार्श्वनाथ की परम्परा के प्रधान शिष्य केशि-श्रमण महावीर के प्रधान शिष्य गौतम से पूछते हैं कि एक ही धर्म के मानने वालों में यह वस्त्रसम्बन्धी भेद कैसा ? इसके उत्तर में गौतम कहते हैं कि विज्ञान से जानकर धर्म के साधनभूत उपकरणों की आज्ञा दी जाती है। बाह्यलिङ्ग तो लोक में मात्र प्रतीति कराते हैं कि अमूक साध है परन्तु मोक्ष के प्रति सद्भुत-साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। इसका आशय यह है कि यह वस्त्रसम्बन्धी भेद भगवान् महावीर
मत की पुष्टि होती है । अथवा आचाराङ्गसूत्रवृत्ति के अनुसार ही 'सान्तरोत्तर' शब्द का यह अर्थ भी उचित है कि सान्तरोत्तर वह साधु है जो वस्त्र रखता तो अवश्य है परन्तु उसका उपयोग कभी-कभी समय पड़ने पर ही करता है। उत्तराध्ययन-नेमिचन्द्रवृत्ति के अनुसार सान्तरोत्तर शब्द का अर्थ जो (महावीर के वस्त्रों की अपेक्षा से) बहुमूल्य व श्रेष्ठ-वस्त्र किया गया है वह उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि अचेल के साथ उसकी कोई संगति नहीं बैठती है। यद्यपि 'अचेल' शब्द का अर्थ टीकाओं में 'निम्नकोटि के वस्त्र' भी किया गया है परन्तु यहाँ पर 'अचेल' शब्द का सीधा-सा अर्थ है-वस्त्ररहित । यदि ऐसा अर्थ न होता तो यहाँ पर 'सान्तरोत्तर' की तरह ही 'अचेल' शब्द का प्रयोग न करके 'अवमचेल' (देखिए-पृ० २५६, पा० टि० २) शब्द का प्रयोग किया जाता जैसा कि हरिकेशिबल मुनि के लिए किया
गया है। १. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा ।।
-उ० २३.२६. २. विन्नाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं ।
-उ० २३.३१. पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगपओयणं ।।।
-उ० २३.३२० तथा देखिए-उ० २३.२५.
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