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________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ ७ गणना मूलसूत्रों में करते हैं ।' विन्टरनित्स आदि विद्वान् चौथा मूलसूत्र पिण्डनियुक्ति को मानते हैं । २ परन्तु कुछ दशवैकालिक और frost स्थान पर ओघनियुक्ति और पाक्षिकसूत्र को मूलसूत्र मानते हैं तथा कुछ पिण्डनिर्युक्ति और ओघनियुक्ति को छेदसूत्रों में भी गिनाते हैं । 3 स्थानकवासी ( श्वेताम्बर) दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी और अनुयोगद्वार इन चार को मूलसूत्र मानते हैं । परन्तु ८४ आगम माननेवाले आवश्यक के साथ पाँच मूलसूत्र मानते हैं। प्रो० कापड़िया ने दशवैकालिक की दो चूलिकाएँ भी मूलसूत्रों में गिनाई हैं ।" इस तरह मूलसूत्रों की संख्या और नामों पर्याप्त अन्तर पाया जाता है फिर भी उत्तराध्ययन के मूलसूत्र होने में किसी को संदेह नहीं है तथा क्रम में अन्तर होने पर भी प्रायः सभी उत्तराध्ययन को प्रथम मूलसूत्र मानते हैं । १. जै० सा० बृ० इ०, भाग-२, पृ० १४३ - १४४. २. हि० इ० लि०, भाग - २, पृ० ४२६; जै० सा० बृ० इ०, भाग - १, प्रस्तावना, पृ० २८. ३. हि० इ० लि०, भाग - २, पृ० ४३०. ४. प्रा० सा० इ०, पृ० ३३, फुटनोट । ५ हि० के० लि० जै०, पृ० ४८. ६ मूलसूत्रों की संख्या व क्रम के विषय में विभिन्न मत : विद्वान् संख्या क्रम १. भावप्रभसूरि ४ २. समयसुन्दर ३. स्थानकवासी और ४ Jain Education International ४ ४ तेरापन्थी श्वेताम्बर कुछ मूर्तिपूजक श्वेताम्बर ५ उत्तराध्ययन, आवश्यक, पिण्डनियुक्ति नियुक्ति तथा दश वैकालिक | कालिक ओघ नियुक्ति, पिण्डनियुक्ति और उत्तरा ध्ययन । - उद्धृत द० उ०, भूमिका, पृ० ६ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार । उत्तराध्ययन, दशकालिक आवश्यक, नंदी और अनुयोगद्वार । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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