________________
३१८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तरह से भिक्षान्न की याचना नहीं करते हैं फिर भी यक्ष के मुख से जो ऐसा कहलाया गया है उसका कारण है-साधु के आहार ग्रहण करने सम्बन्धी विषय का स्पष्टीकरण ।।
४. जो निमन्त्रण आदि से प्राप्त न हो-साध गहस्थ के द्वारा आमन्त्रण करने पर प्राप्त भिक्षा न लेवे' क्योंकि ऐसा आहार लेने पर गृहस्थ साध के निमित्त पाचन क्रिया करेगा जिससे साधु को हिंसा की अनुमति का दोष लगेगा। इसके अतिरिक्त जहां पर पंक्तिबद्ध होकर प्रीतिभोज दिया जा रहा हो वहाँ भी भिक्षार्थ खड़ा न होवे । हरिके शिबल मुनि ब्राह्मणों के द्वारा प्रार्थना करने पर जो यज्ञान को ग्रहण करते हैं वह आमन्त्रणपूर्वक लिया गया आहार नहीं है क्योंकि हरिकेशिबल भिक्षा लेने के समय यज्ञमण्डप में भिक्षार्थ जाते हैं और वहां पर पहले से तैयार किए गए भोजन को ब्राह्मणों पर अनुग्रह करने के लिए ही ग्रहण करते हैं। अतः वहां आमन्त्रणजन्य दोष नहीं है।
५. जो सरस एवं प्रमाण से अधिक न हो-साधु के लिए संयम निर्वाहार्थ ही भोजन ग्रहण करने का विधान है, रसना-इन्द्रिय की सन्तुष्टि के लिए नहीं। अतः साधु को चाहिए कि वह सरस आहार की अभिलाषा से ज्यादा न घुमे । उसे जो नीरस आहार मिले उसका तिरस्कार न करते हुए उसे ग्रहणं करे। इसके अतिरिक्त सरस आहार ग्रहण करने से इन्द्रियाँ कामादि भोगों के सेवन के लिए उद्दीप्त हो जाती हैं जिससे साध पक्षीगणों से १. उद्देसियं कीयगडं नियागं न मुच्चई किंचि अणेसणिज्ज । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता इओ चुओ गच्छइ' कटु पावं ॥
-उ० २०.४७, २. परिवाडीए न चिट्ठज्जा।
-30 2.३२ ३. उ० १२.४-७,१६,१८-२०,३५.
इसी तरह जयघोष मुनि के लिए देखिए-उ० २५.६,३९-४०. ४. देखिए-पृ० ३१६, पा० टि० १; उ० २.३६, ८.११; १५.२,१२;
१८.३०; २१.१५; २३.५८; २५.२.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org