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________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३१७ २. जो गृहस्थ ने स्वयं के लिए तैयार किया हो (पर-कृत)- यदि भोजन साधु के निमित्त से बनाया गया होगा तो साधु को हिंसादि की अनुमति का दोष लगेगा। यदि अतिथि के निमित्त से बनाया गया होगा तो अतिथि का हिस्सा कम हो जाएगा। अतः जिस भोजन को गृहस्थ ने स्वयं के लिए तैयार किया हो उसी में से थोड़ा सा लेवे ताकि गृहस्थ भूखा भी न रहे और उसे पुनः भोजन तैयार करने का प्रयत्न भी न करना पड़े। इस प्रकार के भोजन को ग्रन्थ में 'परकृत' कहा गया है। इसका अर्थ है-पर ( साध से इतर गृहस्थ ) के निमित्त से बनाया गया अर्थात् जिसे गहस्थ ने स्वयं के लिए बनाया हो।' - ३. गृहस्थ के भोजन कर चुकने के बाद जो शेष बचा होगृहस्थ के भोजन कर चुकने के बाद सामान्यतया प्रत्येक घर में एक-दो रोटियां बच जाती हैं। अतः साध उस शेषावशेष अन्न को ही लेवे जिससे गृहस्थ न तो भूखा रहे और न उसे पुनः भोजन बनाने का प्रयत्न ही करना पड़े। इस विषय के स्पष्टीकरण के लिए भिक्षार्थ यज्ञ मण्डप में उपस्थित हरिके शिवल मुनि के शरीर में प्रविष्ट यक्ष के वचनों को उद्धृत कर रहा हूँ- 'मैं संयत, ब्रह्मचारी, धनसंग्रह एवं अन्नादि पकाने की क्रिया से विरक्त साध ( श्रमण ) हूँ। पर के लिए बनाए गए आहार की प्राप्ति के लिए भिक्षा लेने के समय में यहाँ पर आया है। आपके पास यह बहतसा भोज्यान्न है जिसे आप बाँट रहे हैं, खा रहे हैं तथा उपभोग कर रहे हैं। मुझे भिक्षा द्वारा जीवन-यापन करनेवाला तपस्वी समझें तथा ऐसा जानकर मुझे शेषावशेष अन्न देवें । २ यद्यपि जैन साधु इस .. १. फासुयं परकडं पिंडं। --उ० १.३४. तथा देखिए-उ० १२.६; २०.४७. २. समणो अहं संजओ बंभयारी विरओ धणपयणपरिग्गहओ। परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि ।। वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जई अन्नं पभूयं भवयाणमेयं । जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति सेसावसेसं लभऊ तवस्सी ॥ -उ० १२.६-१०. तथा देखिए-उ० ६.१५. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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