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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३१६ पीडित सुस्वादु फलवाले वृक्ष की तरह पीड़ित होकर संयम की आराधना नहीं कर पाता है।' प्रमाण से अधिक भोजन करने से प्रचर इन्धनवाले वन में उत्पन्न हई दावाग्नि की तरह इन्द्रियाँ शान्त नहीं होती हैं ।२ अतः साधु का आहार नीरस एवं स्वल्प होना चाहिए। ___ साध के जीवन-यापन के लिए नीरस आहार के विषय में ग्रन्थ में कुछ संकेत मिलते हैं। जैसे : १. स्वादहीन (प्रान्त ), २ ठण्डा ( शीत-पिण्ड ), ३. पुराने उड़द, मूग आदि ( पुराणकुम्मास ), ४. मंग के ऊपर का छिलका ( वुक्कस ), ५. शुष्क चना आदि ( पुलाग ), ६. बेर का चूर्ण ( मंथु ), ७. शाक या चावल आदि का उबला हुआ पानी ( आयामग ), ८. जव का भात ( यवोदन ), ६. शीतल काजी ( सौवीर ), १०. जव का पानी आदि । इस तरह साध के जीवन-निर्वाह के लिए नीरस आहार लेने का विधान होने का यह तात्पर्य नहीं है कि साधु घत, दूध आदि सरस आहार नहीं ले सकता है अपितु सरस आहार की प्राप्ति में आसक्ति न करके इस प्रकार के नीरस आहार के मिलने पर उपेक्षा न करे। यदि सरस आहार ग्रहण करने से संयम के पालन करने में बाधा पड़े तो उसे सरस आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसीलिए ग्रन्थ में साधु को लाभालाभ में हमेशा सन्तुष्ट रहने को कहा गया है।
६. जो अचित्त, प्रासुक एवं शुद्ध हो-साधु जिस प्रकार के आहार को ग्रहण करे वह अचित्त, प्रासुक एवं शुद्ध हो" क्योंकि ऐसा
१. उ० ३२.१०. २. उ० ३२ ११. ३. पंताणि चेव सेवेज्जा सीयपिडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा जवणट्ठाए निसेवए मंथं ॥ .
-उ० ८.१२. आयामगं चेव जवोदणं च सीयं सोवीरजवोदगं च । न हीलए पिण्डं नीरसं तु पंतकुलाइं परिव्वए स भिक्खू ॥
-उ० १५.१३. ४. देखिए-पृ० ३१६, पा० टि० १; उ० १५.११. ५. उ० १ ३२,३४;६.१५;८.११; ३२.४. आदि ।
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