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प्रकरण १
द्रव्य-विचार
यह विश्व जो हमें दृष्टिगोचर हो रहा है, वह इतना ही है जितना हमें दिखलाई पड़ता है अथवा इससे भी परे कुछ है ? इसका प्रारम्भ कब से हुआ? इसका कभी अन्त होगा या नहीं ? इसके मूल में क्या है जिससे इसका इतना विकास हुआ ? इसके मूल में कुछ है या नहीं अथवा सिर्फ भ्रम है ? इसका कोई व्यवस्थापक है या नहीं ? आदि अनेकों प्रश्न आज भी मानव के हृदय में जिज्ञासा के विषय बने हैं। इन जिज्ञासापूर्ण प्रश्नों का समाधान विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं ने विभिन्न प्रकार से किया है। आज का विज्ञान भी इसी तथ्य की खोज में अनवरत प्रयत्नशील है। जैनतत्त्वज्ञान, पर आधारित उत्तराध्ययन-सूत्र से इस विषय में जो जानकारी प्राप्त होती है उसे निम्न प्रकार से अभिव्यक्त किया जा सकता है : ... १. प्रत्यक्ष दिखलाई पड़नेवाले इस संसार के परे बहुत कुछ है। हमें जो दिखलाई पड़ रहा है वह समुद्र की एक बिन्दु के बराबर भी नहीं है। आज का विज्ञान जितनी खोज कर सका है वह भी बहुत ही अल्प है। यह प्रत्यक्ष-दृश्यमान संसार और इससे परे अनन्त-भाग को हम विश्व शब्द से कहते हैं। इससे इस विश्व के विस्तार का सिर्फ अनुमान किया जा सकता है। मुख्यत: इस विश्व के दो भाग हैं : १. जहां पर सृष्टि-तत्त्वों की मौजदगी है (लोक) और २. जहां शुद्ध आकाश को छोड़कर अन्य सभी सृष्टितत्त्वों का पूर्ण अभाव है ( अलोक ) । इसमें से जितने भाग में सृष्टि-तत्त्व वर्तमान हैं उसकी तो कुछ सीमा है परन्तु इसके परे जो सृष्टि-तत्त्वों से शून्य शुद्ध आकाश प्रदेश है उसकी कोई सीमा नहीं है।
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