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________________ ५४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन २. इस विश्व का प्रारम्भ कब से हआ और यह कब तक चलेगा ? इस विषय में कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है। प्रायः सभी भारतीय दर्शन इस विषय में एकमत हैं कि इस सृष्टि का प्रारम्भ-काल और अन्त-काल नहीं है। अतः इसे अनादि और अनन्त कहा है। किसी वस्तु की वर्तमान अवस्था-विशेष की दृष्टि से प्रारम्भ और अन्त दोनों संभव हैं। ३. यह विश्व शून्यवादी बौद्धों की तरह अभावरूप (शून्यरूप) तथा वेदान्तियों की तरह कल्पनाप्रसूत (मायारूप) नहीं है। अपितु यह उतना ही सत्य और ठोस है जितना हमें प्रतीत होता है। यह बात अवश्य है कि इसमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है परन्तु परिवर्तन के होते रहने पर भी उसका सर्वथा विनाश नहीं होता है, क्योंकि यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि विद्यमान (सत्) का कभी विनाश नहीं होता और अविद्यमान् (असत्) का कभी आविर्भाव नहीं होता है। संसार की असारता, नश्वरता, भ्रमरूपता आदि का जो वर्णन ग्रन्थ में किया गया है वह आध्यात्मिक दृष्टि से किया गया है। ४. इस विश्व का व्यवस्थापक या रचयिता कोई ईश्वर आदि नहीं है। यह स्वचालित-यंत्र की तरह अनवरत एवं अबाधरूप से चल रहा है। ___ इन उपर्युक्त तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक होने से सर्वप्रथम लोक-रचना का निरूपण किया जाएगा। लोक-रचना पहले लिखा जा चुका है कि यह विश्व दो भागों में विभाजित है : एक वह भाग जहाँ पुरुष, स्त्री, गाय, बैल, कीड़े, पत्थर, जलाशय आदि की स्थिति है जिसे 'लोक' या 'लोकाकाश' के नाम से कहा गया है तथा दूसरा वह भाग जहाँ पुरुष, स्त्री, गाय, बैल, कीड़े, पत्थर, जलाशय आदि किसी की भी सत्ता त्रिकाल में संभव १. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । -गीता २. १६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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