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प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[ ५५ नहीं है-सिर्फ आकाश प्रदेश है जिसे 'अलोक' या 'अलोकाकाश' के नाम से कहा गया है।' इस तरह के विभाजन का आधार है सृष्टि-तत्त्वों की मौजूदगी अथवा गैरमौजूदगी । यदि इस तरह का विभाजन न किया जाता तो इस विश्व को असीम मानना पड़ता। आकाश-प्रदेश की कोई सीमा न होने से इसकी लोक के बाहर (अलोक में) भी सत्ता मानी गई है। अलोक की कोई सीमा न होने से तथा वहाँ किसी भी जीव की गति संभव न होने से विवेचनीय विषय लोक ही है।
क्षेत्र की दृष्टि से लोक को तीन भागों में विभाजित किया गया है२ : १. ऊपरी-भाग (ऊर्ध्वलोक ), २. मध्यभाग (तिर्यक्लोक या मध्यलोक) तथा ३. अधोभाग (अधोलोक)। लोक के जो ये तीन भागं किए गये हैं इनका यद्यपि ग्रन्थ में विस्तृत वर्णन नहीं है फिर भी इसे समझे बिना आगे का विवेचन समझना सरल नहीं है। अतः ग्रन्थ में प्राप्त संकेतों के आधार पर तीनों लोकों का वर्णन आवश्यक है। ऊर्ध्वलोक : - जहाँ हमारा निवास है उसके ऊपर के भाग को ऊर्ध्वलोक ___ कहते हैं। ऊर्ध्व लोक में मुख्यरूप से देवों का निवास होने के
कारण इसे देवलोक, ब्रह्मलोक, यक्षलोक तथा स्वर्गलोक भी
१. जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए । अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए ।।
-उ० ३६. २. तथा देखिए-उ० २८. ७; ३६. ७.. २. उड्ढे अहे य तिरियं च ।
-उ. ३६. ५०. तथा देखिए-उ. ३६. ५४. ३. विशेष के लिए देखिए-तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ३; त्रिलोकप्रज्ञप्ति,
जीवाभिगमसूत्र, चन्द्रप्रज्ञप्ति, भगवतीसूत्र आदि ।
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