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________________ ३८२ ] सादिमुक्तता : ऐसा कोई भी काल न था, न है और न होगा जब जीव मोक्ष प्राप्त न करते हों । इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित है कि कोई भी जीव अनादिमुक्त नहीं है क्योंकि मुक्तावस्था के पूर्व संसारावस्था अवश्य स्वीकार की गई है । ग्रन्थ में इसीलिए मुक्त tai को उत्पत्ति की अपेक्षा से 'सादि' तथा इस अवस्था का कभी भी विनाश न होने से 'अनन्त' कहा है।' समुदाय की अपेक्षा से मुक्त जीवों की उत्पत्ति जो अनादि कही गई है उसका यह तात्पर्य नहीं है कि कुछ ऐसे भी जीव हैं जो कभी भी संसारी न रहे हों। इसका सिर्फ इतना ही तात्पर्य है कि बहुत से मुक्त जीव ऐसे भी हैं जिनकी उत्पत्ति का प्रारम्भिक काल नहीं बतलाया जा सकता है । इस अनादि काल में मुक्त जीव कब नहीं थे यह बतलाना मानव की कल्पना के परे होने से उन्हें अनादि कहा गया है, परन्तु वे सब किसी समय विशेष में ही मुक्त हुए हैं क्योंकि अनादि मुक्त मानने पर सृष्टिकर्ता ईश्वर की भी कल्पना करनी पड़ती जो अभीष्ट नहीं है । इसके अतिरिक्त मुक्त जीवों को सर्वथा अनादि मानने पर स्वयं के उत्थान एवं पतन में व्यक्ति के स्वातन्त्र्य का सिद्धान्त पुष्ट नहीं होगा । मुक्तात्माओं का निवास : उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन मुक्तात्माओं का निवास लोक के उपरितमभाग में माना गया है । यह लोकाग्रवर्ती 'सिद्ध शिला' के नाम से प्रसिद्ध है | 3 जीव ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला है और यह ऊर्ध्वगमन लोकान्त तक ही सम्भव हो सकता है क्योंकि अलोक में गति आदि में सहायक धर्मादि द्रव्यों का सद्भाव स्वीकार नहीं किया गया है । यद्यपि मुक्तात्माएँ सर्वशक्तिसम्पन्न होने से गति में सहायक धर्मादि द्रव्यों का अभाव होने पर भी अलोक में जा सकती हैं परन्तु उन्हें कोई १. एगतेण साइया पुहुत्ते अणाइया । Jain Education International -उ० ३६.६६. २ . वही । ३. देखिए - पृ० ५६, पा० टि० ३; पृ० ५७, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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