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________________ प्रकरण ६ : मुक्ति [ ३८३ अभिलाषा न होने से वे लोक की सीमा का उल्लंघन नहीं करती हैं। ये मुक्तात्माएँ वहीं पर स्थित होकर लोकालोक को जानती हैं। ऐसी व्यवस्था न मानने पर मुक्तात्माएँ ऊर्ध्वगमनस्वभाव होने के कारण अविराम आगे बढ़ती चली जातीं और एक क्षण पश्चात् मुक्त हुई आत्मा पूर्ववर्ती मुक्तात्माओं से हमेशा पीछे रहती। अतः लोकाग्रभाग में ही मुक्तात्माओं का निवास माना गया है। मुक्ति किसे, कब और कहाँ से ? ___ ग्रन्थ में मुक्ति का द्वार के लिए जीवों सभी क्षेत्रों में तथा सभी कालों में खुला हुआ है। एक समय में अधिक से अधिक जीव कितनी संख्या में एक साथ मुक्त हो सकते हैं, इस विषय में ग्रन्थ में निम्नोक्त प्रकार के संकेत मिलते हैं : १ मुक्त होनेवाले जीव अधिकतम मुक्त होनेवाले जीव अधिकतम संख्या संख्या १०८ शरीर की सबसे कम अवस्त्री २० गाहना वाले नपुंसक १० मध्यम अवगाहना वाले १०८ जैन साधु (स्व-लिंगी) १०८ ऊर्ध्वलोक से ४ जनेतर साधु (अन्य-लिंगी) १० मध्यलोक (तिर्यक्लोक) से १०८ गृहस्थ ४ अधोलोक से शरीर की सर्वाधिक अवगा- नदी आदि जलाशयों से ३ हना (ऊँचाई) वाले २ समुद्र से - इन आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि मुक्त होने की सर्वाधिक योग्यता मध्यलोकवर्ती मध्यम शरीर की अवगाहना वाले पुरुष-लिङ्गी जैन साधु में है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि वीतरागता की पूर्णता जिस जीव को जिस स्थान में जिस प्रकार के छोटे-बड़े शरीर के वर्तमान रहने पर हो जाए वह उसी स्थान से और उसी शरीर से मुक्त हो सकता है। यहाँ पर १. उ०३६.४६-५४. २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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