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प्रकरण २ : संसार
[ १४६ अतः ग्रन्थ में कर्मबन्ध से उन्हीं कर्मों को लिया गया है जो जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर उससे सम्बद्ध हो जाते हैं और जीव को संसार में परिभ्रमण कराते हैं।'
इस तरह हमारी प्रत्येक मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया (जिसे जैनदर्शन में 'योग' शब्द से भी कहा जाता है) से कर्म-परमाणु जीव की ओर आकृष्ट होते हैं। यदि उस समय आत्मा में रागादिभाव होते हैं तो कर्म-परमाणु आत्मा से चिपक जाते हैं। यदि उस समय आत्मा में रागादिभाव नहीं होते हैं तो कर्म-परमाणु आत्मा के पास आकर के भी अलग हो जाते हैं। इस तरह जीव की प्रत्येक क्रिया से सञ्चलन को प्राप्त होने के बाद कर्म-परमाणुओं की निम्न तीन अवस्थाएँ होती हैं :
१. जो कर्मपरमाणु जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर आत्मा से बद्ध हो जाते हैं और संसार में परिभ्रमण कराते हैं। इन्हें 'सक्रिय बद्ध-कर्म' कहा जा सकता है।
• २. जो कर्म-परमाण जीव के रागादि भावों से रहित केवल मन-वचन-काय की प्रवृत्तिरूप निमित्त से आत्मा के पास आकर उससे न तो बद्ध होते हैं और न अपना कोई प्रभाव आत्मा पर छोड़ते हैं । इन्हें 'निष्क्रिय अबद्ध-कर्म' कहा जा सकता है।
३. जो कर्मपरमाणु जीव के रागादि भावों से रहित मन-वचनकाय की सत्प्रवृत्ति (सदाचार) के निमित्त से आत्मा के पास आकर पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करते हैं। ग्रन्थ में इस प्रकार के कर्म को दुर्गति में न ले जाने वाला कहा है। इन्हें 'सक्रिय अबद्ध-कर्म' कहा जा सकता है।
१. अट्ठ कम्माइं वोच्छामि आणुपुव्विं जहाकम । जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिवट्टई ॥
-उ० ३३.१. २. किं नाम होज्जतं कम्मयं जेणाहं दुग्गइं न गच्छेज्जा।
-उ० ५.१.
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