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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
६. पुत्र के अभाव में माता-पिता की दयनीय स्थिति । ७. परित्यक्त धन का ग्रहण वमित पदार्थ का खाना है । ८. लावारिस धन का अधिकारी राजा होता है । ९. श्रमणधर्म अङ्गीकार करने का फल |
हरिकेशिबल आख्यान : '
• हरिकेशिबल मुनि का जन्म चाण्डाल कुल में हुआ था । उन्होंने जैन श्रमण बनकर उग्र तपस्या की । तप के प्रभाव से एक तिन्दुक वृक्षवासी यक्ष इनकी सेवा करने लगा था । इनका रंग काला था । उग्र तपस्या करने से इनका शरीर कृश हो गया था और वस्त्रादि उपकरण जीर्ण-शीर्ण व मलिन हो गए थे । इनका रूप विकराल होने पर भी तप के प्रभाव से भास्वर था । एक समय ये भिक्षार्थ यज्ञमण्डप में गए। वहाँ जाति से पराजित, अजितेन्द्रिय व अज्ञानी ब्राह्मणों ने इन्हें आते हुए देखकर निन्दायुक्त वचनों में कहा
ब्राह्मण - ओ वीभत्स रूपवाले ! तुम कौन हो ? किसलिए यहाँ आए हो ? यहाँ क्यों खड़े हो ? हमारी आंखों से दूर भाग जाओ ।
यक्ष ( मुनिरूपधारी ) - मैं धनादि के संग्रह से विरत संयमी श्रमण हूँ । भिक्षान्न प्राप्त करने के लिए यहाँ आया हूँ । आप बहुतसा भोज्यान्न बाँट रहे हैं । अतः शेषावशेष अन्न मुझे भी प्राप्त हो । ब्राह्मण - यह भोज्यान्न सिर्फ ब्राह्मणों के लिए है । हम यह तुम्हें नहीं देंगे। फिर क्यों यहाँ खड़े हो ?
यक्ष - जैसे किसान अच्छी उपज की आशा से ऊँची-नीची सभी जगह बीज बोता है वैसे ही पुण्याभिलाषी तुम मुझे भी दान दो । यह पुण्यक्षेत्र है । यहाँ दिया गया दान खाली नहीं जाएगा ।
ब्राह्मण - पुण्यक्षेत्र तो श्रेष्ठ जाति व विद्या से युक्त ब्राह्मण ही हैं ।
यक्ष - क्रोधादि में आसक्त ब्राह्मण पापक्षेत्र हैं । वे वेदों को पढ़करके भी उनके अर्थ को नहीं जानते हैं । जो श्रमण सभी कुलों में भिक्षा के लिए जाते हैं वे ही पुण्यक्षेत्र हैं ।
१. उ० अध्ययन १२.
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