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________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [४६३ वासिष्ठी-पहले उपलब्ध इन प्रचुर भोगों को भोगें फिर दीक्षा लेंगे। पुरोहित-हम भोग भोग चुके हैं। आयु क्षीण होती जा रही है। अतः अब मैं संयम धारण करने के लिये भोगों को छोड़ना चाहता हूँ। ___ वासिष्ठी-अभी मेरे साथ भोगों को भोगो। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें प्रतिस्रोत में बहने वाले वृद्ध हंस की तरह दीक्षा लेने के बाद बन्धुओं की याद करके पछताना पड़े। पुरोहित-जब पुत्रों ने निर्ममत्वभाव से भोगों को छोड़ दिया है तो फिर मैं भी उनका अनुगमन क्यों न करूं । ___ इस तरह पुत्र और पति का दृढ़ निश्चय देखकर वासिष्ठी भी सोचती है कि जैसे क्रौञ्च पक्षी जाल का भेदन करके चले जाते हैं वैसे ही मेरे पुत्र और पतिदेव जा रहे हैं । अतः मैं भी उनका अनुगमन क्यों न करूं । यह सोच वह भी पुत्र व पति का अनुगमन करती है। इस प्रकार पुरोहित के सपरिवार दीक्षा ले लेने पर जब उस देश के राजा इषुकार ने राजधर्मानुसार उसके धन को लेना चाहा तो उसकी पत्नी कमलावती ने कहा- जैसे वमन किए हुए पदार्थ को खानेवाले की कहीं प्रशंसा नहीं होती वैसे ही ब्राह्मण के द्वारा त्यक्त धन को लेने वाले की प्रशंसा नहीं होती। धन से न तो तृप्ति होती है और न रक्षा। रक्षक एकमात्र धर्म है । अत: उसी का आचरण करना उचित है।' इस तरह विविध प्रकार से कमलावती के द्वारा समझाए जाने पर राजा ने भी अपनी पत्नी के साथ दीक्षा ले ली। अन्त में श्रमणधर्म का पालन करके वे छहों जीव मुक्त हो गए। इस परिसंवाद से निम्नोक्त विषयों पर प्रकाश पड़ता है : १. विषयभोगों की असारता व दुःखरूपता। २. वेदाध्ययन, ब्राह्मणभोजन, पुत्रोत्पत्ति आदि रक्षक नहीं हैं । रक्षक एकमात्र धर्म है। ३. तप का प्रयोजन गुणधारण है न कि भोगों की प्राप्ति । ४. आत्मा की सिद्धि व उसकी अजरता-अमरता। ५. कल की प्रतीक्षा वही करे जो मृत्यु से बच सकता हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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