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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार
[ ३३१ ग्रन्थ में कुल मिलाकर १२ प्रकार के तपों का वर्णन मिलता है। उन १२ प्रकार के तपों के नाम क्रमशः ये हैं :
१. अनशन ( सब प्रकार के आहार का पूर्ण त्याग ), २. ऊनोदरी ( अवमोदर्य-भूख से कम खाना ), ३. भिक्षाचर्या ( भिक्षाटन के निश्चित नियमों का पालन करते हुए भिक्षान्न द्वारा जीवन-यापन करना ), ४. रस-परित्याग ( घतादि सरस द्रव्यों का त्याग), ५. कायक्लेश (शरीर को कष्टदायक योगासनादि लगाना), ६. सलीनता या विविक्तशयनासन ( एकान्त व निर्जन स्थान में निवासादि करना ), ७. प्रायश्चित्त (पापाचार का शोधन ), ८. विनय ( गुरुजनों आदि के प्रति विनम्रता के भाव ), ह. वैयावृत्य ( गुरुजनों आदि की सेवा-शुश्रुषा करना ), १०. स्वाध्याय ( ज्ञानार्जन करना ), ११. ध्यान ( चित्त को एकाग्र करना ) और १२. व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग ( शरीर से ममत्व हटाना )।
उपर्युक्त १२ प्रकार के तप के भेदों में अनशन आदि प्रथम छः तप शरीर की वाह्य-क्रिया से अधिक सम्बन्धित होने के कारण बाह्य तप कहलाते हैं तथा प्रायश्चित्त आदि अन्तिम छः तप शरीर की बाह्य-क्रिया की अपेक्षा आत्मा से अधिक सम्बन्धित होने के कारण आभ्यन्तर तप कहलाते हैं। बाह्य तपों का प्रयोजन आभ्यन्तर तपों को पुष्ट करना है । अत : प्रधानता आभ्यन्तर तपों की है। बाह्य तप आभ्यन्तर तपों की ओर ले जाने में मात्र सहायक हैं। वैयावृत्य और कायोत्सर्ग (व्युत्सर्ग , यद्यपि ऊपर से देखने में बाह्य तप प्रतीत होते हैं परन्तु वैयावृत्य के सेवाभावरूप होने से और कायोत्सर्ग के शरीर के ममत्व-त्यागरूप होने से इनमें बाह्यता नहीं है । बाह्य तपों
१. अणसणमूणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिले सो संलोणया य बज्झो तवो होइ ।।
-उ० ३०.८. पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सगो एसो अभिंतरो तवो ।।
-उ० ३०.३०. तथा देखिए-उ० ३०.७,२६; २८.३४; १६.८६.
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