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३३०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । आने के द्वार को बन्द करने के अतिरिक्त जल को उलीचने एवं सूर्य आदि के ताप से सुखाने की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार साधु को भी पूर्वसंचित कर्मों को निर्जीर्ण करने के लिए अहिंसादि व्रतों के अतिरिक्त तप की भी आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त कषायरूपी शत्रुओं के आक्रमण करने पर उन पर विजय प्राप्त करने के लिए तप को बाण एवं अर्गलारूप भी बतलाया गया है। इस तरह तप पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने में अग्निरूप हैं तथा आगे बंधनेवाले कर्मों को रोकने के लिए बाण एवं अर्गलारूप भी हैं। तप के इसी महत्त्व के कारण ग्रन्थ में तप को कहीं-कहीं चारित्र से पृथक बतलाया गया है। वस्तुतः तप चारित्र से सर्वथा पृथक नहीं है क्योंकि जो तप का वर्णन किया गया है वह साधु के सामान्य आचार का ही अभिन्न अङ्ग है। साधु के सामान्य आचार से सम्बन्धित कुछ विशेष क्रियाओं को ही यहां तप के रूप में बतलाया गया है। आत्मसंयम जोकि चारित्र की आधारशिला है तप उससे पृथक नहीं है अपितु तद्रूप ही है। वस्तुतः तप को कठोर या दृढ़ आत्मसंयम कहा जा सकता है।
तप के भेद :
तप को बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से सर्वप्रथम दो भागों में विभाजित किया गया है, फिर बाह्य तप और आभ्यन्तर तप को पुनः ६-६ भागों में विभक्त किया गया है । इस तरह
१. जहा महातालयस्स सन्निरुद्धे जलागमे ।
उस्सिंचणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ।। एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे । भवकोडिसंचियं कम्म तवसा निज्जरिज्जइ ।।
-उ० ३०.५-६.
तथा देखिए-उ०६.२०; २५.४५ ; २८.३६ ; २६.२७ ; ३०.१,४ आदि । २. देखिए-पृ० २८६, पा. टि. ४.
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