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________________ प्रकरण ५ विशेष साध्वाचार जैसा कि पिछले प्रकरण में बतलाया जा चुका है कि विशेष अवसरों पर कर्मों की विशेष निर्जरा करने के लिए साधु जिस प्रकार के सदाचार का विशेषरूप से पालन करता है उसे यहां पर विशेष साध्वाचार के नाम से कहा गया है । यह विशेष साध्वाचार साधु के सामान्य आचार से सर्वथा पृथक् नहीं है अपितु जब साधक अपने सामान्य साध्वाचार का ही विशेषरूप से दृढ़तापूर्वक सब प्रकार के कष्टों को सहन करता हुआ पालन करता है तो उसे ही तपश्चर्या आदिरूप विशेष साध्वाचार के नाम से कहा गया । विषय की दृष्टि से इसे निम्नोक्त चार भागों में विभक्त किया गया है : १. तप - तपश्चर्या । २. परीषहजय - तपश्चर्या आदि में प्राप्त कष्टों पर विजय । ३. साधु की प्रतिमाएँ - तपविशेष | ४. सल्लेखना - मृत्यु- समय की विशेष तपश्चर्या । अब क्रमशः इन पर ग्रन्थानुसार विचार किया जाएगा । तपश्चर्या-त्रप ग्रन्थ में कहीं-कहीं चारित्र से पृथक् जो तप का उल्लेख किया गया है वह उसके महत्त्व को प्रकट करने के लिए किया गया है । तप एक प्रकार की अग्नि है जिसके द्वारा सैकड़ों पूर्व-जन्मों में संचित ( पूर्वबद्ध ) कर्मों को शीघ्र ही जलाया जा सकता है । कर्म जोकि आत्मा के साथ सम्बद्ध हैं उनकी संख्या इतनी अधिक है कि उन्हें आयु के अल्पकाल में भोगकर नष्ट नहीं किया जा सकता है । अतः जिस प्रकार विशाल तालाब के जल को सुखाने के लिए जल के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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