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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
में उल्लेख मिलता है । " योगदर्शन में अहिंसा - विरोधी हिंसा क कृत, कारित और अनुमोदना के भेद से तीन भेद किए गए हैं। इसके बाद मृदु, मध्य और अधिमात्र के भेद से प्रत्येक के पुनः तीन-तीन भेद करने से हिंसा के नव भेद हो जाते हैं । इस नव प्रकार की हिंसा के भी क्रोध, लोभ और मोहपूर्वक होने से हिंसा के कई भेदों का उल्लेख किया गया है । इस सब प्रकार के हिंसा निरोध से अहिंसा भी कई भेदों वाली हो जाती है । २ योगदर्शन में अहिंसा का इतना अधिक विस्तार होने पर भी वहाँ अहिंसा का इतनी सूक्ष्मता से पालन नहीं किया जाता है जितना कि प्रकृत ग्रन्थ में बतलाया गया है । यहाँ एक बात और इस प्रसङ्ग में स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जिस प्रकार उत्तराध्ययन में सभी व्रतों के मूल में अहिंसा को स्वीकार किया गया है उसी प्रकार योगदर्शन में व्यासभाष्यकार ने भी लिखा है कि सत्यादि अन्य सभी व्रत और नियमोपनियम इसी अहिंसा की पुष्टि करने वाले हैं । 3
इस तरह इन महाव्रतों की सार्वभौमिकता सुतरां सिद्ध हो जाती है। इनकी सुरक्षा जैसे सम्भव हो उसी प्रकार का आचरण करना ही साधु का सदाचार है। इन पाँच नैतिक व्रतों का व्यवहार में भी महत्त्व है जैसा कि महाव्रतों के प्रसङ्ग में लिखा चुका है।
१. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । जातिदेशकाल समयानवच्छिन्नाः सर्वभौमा महाव्रतम् ।।
- पा० यो० २३०-३१. २. वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्ष भावनम् ॥
- पा० यो० २.३४. ३. तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामभिद्रोह उत्तरे च यमनियमास्तन्मूलास्तसिद्धिपतयैव तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते ।
- पा०यो० ( २.३० ) - व्यासभाष्य, पृ० ६१.
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