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________________ ३३२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन को जितनी आसानी से तप कहा जा सकता है उतनी आसानी से वैयावृत्य आदि को नहीं। अतः इनके भाव-प्रधान होने से ये आभ्यन्तर तप हैं। अब क्रमशः इन सभी प्रकार के तपों का ग्रन्थानुसार वर्णन किया जाएगा। बाह्य तप : पहले लिखा जा चुका है कि शारीरिक बाह्य-क्रिया से विशेष सम्बन्ध रखने के कारण अनशन आदि छः बाह्य तप कहे जाते हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इनका आभ्यन्तर-शुद्धि से कोई प्रयोजन नहीं है । इन्हें बाह्य तप कहने का मूल प्रयोजन यह है कि ये आभ्यन्तर-शूद्धि की अपेक्षा बाद्य -शुद्धि के प्रति अधिक जागरूक हैं। इनके स्वरूपादि इस प्रकार हैं : १. अनशन तप: सब प्रकार के भोजन-पान का त्याग करना अनशन तप है। यह कुछ समय के लिये एवं जीवन-पर्यन्त के लिए भी किया जा सकता है। अतः इसके दो भेद किए गए हैं :१ १. इत्वरिक अनशन तप (कुछ समय के लिए किया गया-सावधिक ) तथा २. मरणकाल अनशन तप ( जीवन-पर्यन्त के लिए किया गया-निरवधिक )। क. इत्वरिक अनशन तप ( सावकांक्ष-अस्थायी )-इस तप को करनेवाला साधक एक निश्चित अवधि के बाद भोजन ग्रहण कर लेता है । अतः ग्रन्थ में इस तप को 'सावकांक्ष' ( जिसमें भोजन की आकांक्षा बनी रहती है) कहा गया है । संक्षेप में इसके अवान्तर छ: प्रकार बतलाए गए हैं, विस्तार से मनोनकल कई प्रकार सम्भव हैं। वे छ: प्रकार ये हैं : १. श्रेणीतप-इस प्रकार से अनशन (उपवास) करना कि एक पंक्ति । श्रेणी ) वन जाए। जैसे : दो दिन का, तीन १. इत्तरिय मरणकाला य अणसणा दुविहा भवे । इत्तरिय सावकंखा निरवकखा उ विइज्जिया ।। -उ० ३०.६. तथा देखिए -- उ० ३०.१०-१३; २६.३५. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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