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________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ १९३ ग्रन्थ में यद्यपि छन्दोबद्धता या प्रधानता प्रकट करने के कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्र का व्युत्क्रम से भी उल्लेख किया गया है परन्तु जहां इनके क्रम का विचार किया गया है वहां स्पष्ट कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना सच्चारित्र नहीं होता तथा सच्चारित्र के बिना कर्मों से मुक्ति नहीं मिलती । " गीता में भी यही क्रम बतलाते हुए कहा है : 'श्रद्धावान् ही पहले ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञान-प्राप्ति के बाद संयतेन्द्रिय ( सदाचार में प्रवृत्ति करने वाला ) बनता है । इसी प्रकार बौद्धदर्शन में भी ज्ञान (प्रज्ञा), आचार ( शील) और तप (समाधि) को रत्नत्रय ( तीन रत्न ) कहा गया है तथा इन तीन रत्नों की प्राप्ति के पूर्व सम्यक्त्व को आवश्यक माना गया है। इस तरह दुःखों से छुटकारा पाने के लिए रत्नत्रय की साधना आवश्यक है । " जैनदर्शन में 'रत्नत्रय' के नाम से प्रसिद्ध मोक्ष के इन तीन raat का हो सम्मिलित नाम ग्रन्थ में 'धर्म' भी मिलता है | अतः १. देखिए - पृ० १८७, पा० टि० १. २. श्रद्धावल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्धा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ -- गीता ४. ३६. ३. सम्यक्ज्ञान, सम्यक्संकल्प ( दृढ़ निश्चय), सम्यक्वचन ( सत्यवचन ), सम्यक् कर्मान्त ( हिंसादि से रहित कर्म ), सम्यक्आजीव ( सदाचारपूर्ण जीविका ), सम्यक् व्यायाम ( भलाई के लिए प्रयत्न ), सम्यक् स्मृति ( अनित्य की भावना ) तथा सम्यक्समाधि ( चित्त की एकाग्रता ) | इस तरह सम्यक्त्व आठ प्रकार का है । ४. भा० द० ब०, पृ० १५५. ५. अज्ञान से विषाक्त भोजन कर लेने वाले रोगी के स्वास्थ्यलाभ के लिए आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम डाक्टर या औषधि आदि पर विश्वास करे, औषधिसेवन की विधि आदि का ज्ञान हो और तदनुसार उसका सेवन करे। इनमें से एक की भी कमी होने पर जैसे स्वास्थ्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है वैसे ही संसार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए रत्नत्रय की आराधना आवश्यक है । -- देखिए - सर्वार्थसिद्धि १.१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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