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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र नियुक्तिकार ने उत्तर शब्द का अर्थ किया है-जिसका आचाराङ्ग आदि के बाद अध्ययन किया जाय।' इसका अर्थ यह हुआ कि आचाराङ्गादि के बाद पढ़े जाने के कारण इसकी 'उत्तर' संज्ञा हुई है। चूर्णिकार, बृहद्वत्तिकार आदि इसी मत का समर्थन करते हैं।
उत्तर शब्द के पूर्व-सापेक्ष होने से तथा उत्तरकाण्ड, उत्तररामचरित आदि में प्रयुक्त 'उत्तर' शब्द का अर्थ पश्चाद्भावी होने से उत्तराध्ययन में प्रयुक्त 'उत्तर' शब्द का अर्थ 'पश्चाभावी' समूचित प्रतीत होता है। इसके अध्ययन उत्तरोतर प्रधान (श्रेष्ठ) हैं इसलिए इसकी उत्तर संज्ञा हई है यह उपलब्ध उत्तराध्ययन के आधार पर नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार 'जबाब' (बिना पूछे प्रश्नों का उत्तर) अर्थ भी उपलब्ध उत्तराध्ययन की अपेक्षा समुचित नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि धवला-टीका आदि दिगम्बर-ग्रन्थों तथा कल्प-सूत्र, त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित आदि श्वेताम्बर-ग्रन्थों में उल्लिखित उत्तराध्ययन के विषय से यह अर्थ कथञ्चित् संगत हो सकता है। परन्तु उपलब्ध उत्तराध्ययन के आधार पर ऐसा कहना संभव नहीं है।
उपर्युक्त विवेचन से 'उत्तर' शब्द का अर्थ पश्चाद्भावी ही सिद्ध होता है। यहाँ एक प्रश्न और है कि पश्चाद्भावी से क्या तात्पर्य है ? बाद की रचना या बाद में जिसका अध्ययन किया जाय। मेरा विचार है कि उत्तराध्ययन-नियुक्ति आदि श्वेताम्बर-ग्रन्थों तथा गोम्मटसार-जीवकाण्ड आदि दिगम्बर-ग्रन्थों के आधार से
१. कम उत्तरेण पगयं आयारस्सेव उवरिमाइं तु । • तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा हुंति णायव्वा ।।
-उ० नि०, गाथा ३. २. उ० नि०, गाथा ३ पर चूणि और बृहद्वृत्ति ।
तथा देखिए-पृ० १४, पा० टि० १. ३. उत्तर।णि अधीयते पठ्यंते आत्मन्निति उत्तराध्ययनम् ।
-गो० जी० ( गाथा ३६७ ) जीवप्रबोधिनी संस्कृत-टीका । तथा देखिए-पृ० २६, पा० टि० ३; पृ० ३१, पा० टि० २.
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