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________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ १९१ से मुक्ति को मानने वालों के प्रति ग्रन्थ में कहा है-'कुछ लोग यह मानते हैं कि पापाचार का त्याग किए बिना मात्र आर्यकर्मों का ज्ञान कर लेने से दु:खों से छुटकारा मिल जाता है। इस तरह ज्ञानमात्र से बन्धन और मोक्ष का कथन करने वाले ये आचारहीन व्यक्ति स्वयं को सिर्फ अपने वचनों से आश्वस्त करते हैं क्योंकि जब अनेक प्रकार की भाषाओं का ज्ञान रक्षक नहीं हो सकता है तब मंत्रादि विद्याओं का सीखनामात्र (विद्यानुशासन) कैसे रक्षक हो सकता है ? इस तरह पाप-कर्म में निमग्न और अपने आपको पण्डित मानने वाले ये लोग वास्तव में मूर्ख हैं।'' इससे स्पष्ट है कि ज्ञानमात्र से मुक्ति की कल्पना करना मूर्खता है। वास्तव में चारित्र के बिना ज्ञान पंगु एवं भाररूप है, ज्ञान के बिना चारित्र अन्धा है तथा दृढ़ विश्वास के बिना ज्ञान और चारित्र में प्राणरूपता ( दृढ़ता ) का अभाव है। यदि आचाररूप क्रिया के अभाव में मात्र ज्ञानसे कार्य-सिद्धि मान ली जाए तो एक डाक्टर जोकि सब रोगों की दवा जानता है, बिना दवा खाए ही स्वस्थ हो जाना चाहिए । परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता है। यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि जब ग्रन्थ में संसार एवं दुःख का मूल कारण अज्ञान बतलाया गया है तो फिर उससे निवृत्ति का उपाय भी ज्ञान ही होना चाहिए; श्रद्धा एवं चारित्र को मानने की क्या आवश्यकता है ? यद्यपि यह कथन ठीक है परन्तु उस सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए दृढ़-श्रद्धा और आचार भी अपेक्षित है। जब तक दृढ़-श्रद्धा नहीं होगी. तब तक ज्ञान की प्राप्ति के लिए झुकाव भी नहीं हो सकता है तथा जब तक इन्द्रियों की चञ्चलता को रोककर ज्ञानप्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं किया जाएगा तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। १. इहमेगे उ मन्नंति अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ता णं सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥ भणंता अकरेंता य बंधमोक्खपइण्णिणो। वायविरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ॥ न चित्ता तायए भासा कुओ विज्जाणुसासणं । विसण्णा पावकम्मेहिं बाला पंडियमाणिणो ।। -उ० ६.६-११. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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