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२०] उत्तराध्ययन-सूत्र: एक परिशीलन
१६. ब्रह्मचर्य-समाधिस्थान-इसकी सत्रह गाथाओं में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए १० बातों का त्याग आवश्यक बतलाया है। ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रकट करने वाले इस अध्ययन को गद्य तथा पद्य में पुनरावृत्त किया गया है।
१७. पापश्रमणीय-इसमें पथभ्रष्ट श्रमण (साधु) का वर्णन होने से इसका नाम पापश्रमणीय रखा गया है। इसकी २१ गाथाओं में से तीसरी गाथा से लेकर उन्नीसवीं गाथा पर्यन्त प्रत्येक गाथा के अन्त में 'पावसमणि त्ति वुच्चई' पद आया है।
१५. संजय'-इसमें ५४ गाथाएँ हैं जिनमें राजर्षि संजय की दीक्षा लेने का वर्णन है। प्रसंगवश कई राजाओं आदि का उल्लेख है जिन्होंने साधुधर्म में दीक्षित होकर मुक्ति प्राप्त की थी।
१६. मृगापुत्रीय-इसमें ६६ गाथाएं हैं जिनमें मृगापुत्र की वैराग्यसम्बन्धी कथा के साथ मृगापुत्र और उसके माता-पिता के बीच होनेवाला संवाद बहुत ही सुन्दर है। इसमें साधु के आचार के प्रतिपादन के साथ प्रसंगवश नारकीय कष्टों का भी वर्णन है। मृगचर्या के दृष्टान्त द्वारा भिक्षाचर्या का वर्णन होने से संभवतः समवायांग में इसका नाम 'मृगचर्या' दिया गया हो जो बाद में मृगापुत्र की प्रधानता के कारण मृगापुत्रीयं कर दिया गया हो।
२०. महानिर्ग्रन्थीय-इसमें ६० गाथाएँ हैं । इसमें अनाथी मुनि और राजा श्रेणिक के बीच सनाथ और अनाथविषयक संवाद बड़ा ही रोचक है। अनाथी मुनि की प्रव्रज्या की घटना का विशेषरूप से वर्णन होने के कारण समवायांग में संभवतः अनाथप्रव्रज्या नाम दिया गया हो। प्रकृत-ग्रन्थ में जो महानिर्ग्रन्थीय नाम मिलता
१. कुछ टीकाकारों ने इस अध्ययन का संस्कृत नाम 'संयतीय' लिखा है
जबकि प्राकृत में 'संजइज्ज' नाम है। संजय राजा का वर्णन होने से 'संजय' नाम ही ठीक प्रतीत होता है । याकोबी तथा नियुक्तिकार की भी यही मान्यता है। -देखिए-से० बु० इ०, भाग-४५, पृ० ८०; उ० नि०, गाथा ३६४.
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