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प्रकरण ७
समाज और संस्कृति
कोई भी साहित्य तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, भौगोलिक आदि विविध परिस्थितियों से प्रभावित हए बिना नहीं रह सकता। अतः साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। उत्तराध्ययन, जिसमें प्रधानरूप से धर्म और दर्शन का ही प्रतिपादन किया गया है उसमें भी जैन श्रमण ( साधु )संस्कृति के क्रमिक-विकास के साथ सामाजिक जीवन का भी प्रभाव परिलक्षित होता है जो भारतीय इतिहास की दष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अतः उत्तराध्ययन को केवल शुष्क धर्म और दर्शन का ही प्रतिपादक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। इसमें निहित संकेतों के आधार से तत्कालीन सामाजिक चित्रण संक्षेप में निम्न प्रकार से प्रदर्शित किया जा सकता है ।
वर्णाश्रम-व्यवस्था सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन में वर्ण और आश्रम-व्यवस्था का विशेष महत्त्व था। जो जिस जाति या वर्ण में पैदा होता था . वह उसी जाति व वर्णवाला कहलाता था। वर्ण और जाति पर आधारित समाज सांस्कृतिक दृष्टि से जीवन के चार आश्रमों में विभक्त था। इस तरह सम्पूर्ण समाज और संस्कृति वर्ण और आश्रम व्यवस्था पर निर्भर थी।
जाति व वर्ण-व्यवस्था :
उस समय आर्य और अनार्य के भेद से दो प्रमुख जातियां और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के भेद से चार वर्ण थे। वैदिक साहित्य के अनुसार आर्य विजेता तथा गौरवर्ण के थे परन्तु अनार्य
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