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३६२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । उनके अधीन तथा कृष्णवर्ण के थे। इस तरह इनमें शारीरिक रूप का भेद था। उत्तराध्ययन में भी ब्राह्मणों की कुछ इसी प्रकार की धारणा का संकेत मिलता है । अतः हरिकेशिबल मुनि को कुरूप देखकर वे उनका निरादर करते हैं। इस प्रकार की धारणा के विरोध में ग्रन्थ में सदाचारी को आर्य और सदाचार से हीन को अनार्य मानकर जैनधर्म को आर्यधर्म तथा हिंसादि में प्रवृत्त ब्राह्मणों को भी अनार्य कहा गया है। इसी प्रकार ब्राह्मणों के . जातिमद के विरोध में कर्मणा जातिवाद की स्थापना करते हुए कहा गया ' है-'कर्म से ब्राह्मण, कम से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से ही जीव शूद्र होता है। केवल सिर मुड़ाने से श्रमण, ओंकार का जाप करने से ब्राह्मण, जंगल में रहने से मनि और कुश-चीवर धारण करने से तपस्वी नहीं होता है अपितु समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि तथा तप करने से तपस्वी होता है।४ इस तरह जन्मना जातिवाद व वर्णवाद के आधार पर हुए सामाजिक संगठन के विरोध में तथा कर्मणा जातिवाद व वर्णवाद के प्रचार में जैन तथा बौद्ध धर्मानुयायियों का मुख्य उद्देश्य रहा है।
१. जै० भा० स०, पृ० २२१. २. कयरे आगच्छइ दित्तरूवे काले विकराले फोक्कनासे ।।
-उ० १२.६. ओमचेलया पंसुपिसायभूया गच्छाक्खलाहि किमिहं ठिओ सि ।
-उ० १२.७. ३. उवहसंति अणारिया।
-उ० १२.४. रमइ अज्जवयणम्मि तं वयं बूम माहणं ।
-उ० २५ २०. चारित्ता धम्ममारियं ।
-उ० १८.२५. ४. न दीसई जाइविसेस कोई ।
--उ० १२.३७. तथा देखिए-पृ० २४६, पा० टि० ३; पृ० २३८, पा० टि० ३. ५. सुत्तनिपात १.७.३.६; मजूमदार-कोरपोरेट लाइफ इन ऐंशियेन्ट
इण्डिया, पृ० ३५४-३६३.
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